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तत्त्वभावना
न पुनरिह कदाचिद्वोर संसारचक्रे । स्फुटमसुखनिधाने श्राम्यता शर्म पुंसा ||६|| अन्वयार्थ - यदि (दिनकरकरजाले) सूर्य की किरण समूह में कदाचित् (शैत्यम् ) ठंडकपना हो जावे तथा (इंदो ) चन्द्रमा के (उष्णत्वं ) गर्मी हो जावे व (जातु) कदाचित् (सुरशिखरिणि) सुमेरु पर्वत में ( जंगमत्वं ) जंगमपना या हलन चलनपना ( प्राप्यते ) प्राप्त हो जावे तो हो जावो (पुनः) परन्तु (कदाचित् ) कभी भी (असुखनिधाने) दुःखों की खान ( इह घोर संसारचक्रं ) इस भयानक संसार के चक्र में (भ्राम्यता ) भ्रमण करते हुए (पुंसा ) पुरुष को (कुटम् ) प (राम) सुख (न) नही प्राप्त हो
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सकता है |
भावार्थ - यहां पर आचार्य ने दिखलाया है कि मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा आत्मज्ञान रहित ही जीव चारों गतिमई संसार के चक्कर में नित्य भ्रमण किया करता है। अज्ञानी को संसार ही प्यारा है । वह संसारके भोगों का ही लोलुपी होता है। इसलिए वह गाढ़े कर्मों को बांधकर कभी दुःख कभी कुछ सांसारिक सुख उठाया करता है । उसको स्वप्नम भी आत्मीक सच्चे सुख का लाभ नहीं होता है। आचार्य ने यहां तक कह दिया है कि असंभव बातें यदि हो जायें अर्थात सूर्य की किरणें गरम होती हैं वे ठंडी हो जावें व चन्द्रमा में ठंडक होती है सो गरमी मिलने लगे तथा सुमेरु पर्वत सदा स्थिर रहता है सो कदाचित् चलने लग जाये परन्तु मिथ्यादृष्टि जीवको कभी भी आत्म सुख नहीं मिल सकता है । इसलिए हमें उचित है कि मिथ्यात्वरूपी विष को उगलने का उद्यम करें और सम्यग्दर्शन को प्राप्त करें । भेद विज्ञान को हासिल करें व आत्मा के विचार करने वाले हो जानें इसी ही उपाय से मुक्ति के अनन्त सुखका लाभ होता है । श्री पद्मनंदि मुनि परमार्थविशति में कहते हैं—