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तात्पर्य कहने का यह है कि जो मानव आत्मोन्नति चाहता है उसका यह कर्तव्य है कि भेद विज्ञान के द्वारा अपने शुद्ध स्वरूप को अलग छांट ले और जो अनात्मा है उसको अलग कर दे। इसी प्रकार के विचार से स्वानुभव की प्राप्ति होती है। यही स्वानुभव का बीज है । पद्मनंदि मुनि एकत्वाशीति में कहते हैं
एकमेव हि चैतन्य शुनिश्चयतोऽपथा। नावकाशो विकल्पाना सत्राखंडकवस्तुनि ॥१५॥ भावार्थ---शुद्ध निश्चय से देखा जाये तो यह आत्मा एक ही चैतन्यरूप है तथा इस अखंड पदार्थ में अनेक दूसरे विकल्पों के उठाने की जगह ही नहीं है कि मैं देव हूं या नारकी हूँ। इत्यादि।
मल श्लोकानुसार शार्दलविक्रीडित छन्द गोरा सुन्दर वीर और धीमान हं थूल पतला कड़ा। हूं पशु नारक वेव और मानव नारी पुरुष षंढ पा ॥ मूरख मिथ्या कल्पना जु करता निज आत्म नहि वेदता। जो है नित्य पवित्र ज्ञानरूपी जहं कण्टको शून्यता ॥७॥
उत्पामिका-आगे कहते हैं कि मुमुक्ष जीव को नित्य ही परमात्मा का स्वरूप चिन्तवन करना चाहिएसरिंभकषायसंगरहितं खोपयोगोखतम् । तपं परमात्मनो विकलिलं बाह्यव्यपेक्षातिगं ।। तन्तिःश्रयसकारणाय हृदये कार्य सदा नापरम् । कृत्यं क्यापि चिकोर्षयो न सुधियः कुर्वन्ति तब्ध्वंसकं ॥७१
अन्वयार्थ (सर्वारम्भकषायसंगरहितम्) जो सर्व आरम्भ,