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तस्वभावना
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चमकने वाले रेत में पानी की इच्छा को कभी नहीं छोड़ते हैं (यतः) इसीलिए यह कहना पड़ता है कि (पुंसाम्) जीवों को (अनर्थदानकुशलं) संकटों के देने में कुशल (अवार्योदयम्) व जिसके प्रभाव को दूर करना कठिन है (तं मोह) ऐसे मोह को (धिक्) धिक्कार हो।
भावार्थ-यहाँ आचार्यने बताया है कि स्त्रियों की तरफ का मोह ऐसा भुलाने वाला है कि यह मोहित प्राणी मिध्यादर्शन और मिथ्याज्ञानसे वासित हो बारबार स्त्रियोंके फदेमें फंसता है और बारबार दुःख उठाता है अपनी अष्णा को बुझाने के स्थान में अधिक बढ़ा लेता है। फिर भी स्त्रियों के भीतर सुख को वांछा से मोह करता है । दुःख सह करके भी दुःखके कारणको बार-२ ग्रहण करता है इस मोही प्राणी का हाल ठोक इस हिरण के समान है जो रेतीके जंगल में प्याप्सा होकर पानीको न पाता हुआ दूरसे चमकती हुई रेतको पानोके भ्रम में फंसकर पीने को जाता है। वहां पानी न पाकर ग्यासको अधिक बढ़ा लेता है फिर भी नहीं समझता है वारबार रेती में जा-जाकर व कष्ट उठाउठाकर आकुलित होता है। आचार्य कहते हैं कि इस मोहके नशे को धिक्कार हो जिम के कारणसे यह प्राणी व्यर्थ महान कष्ट पाता है व जिस मोहको दूर करना भी बड़ा कठिन है। तात्पर्य यह है कि हे मन ! तू सावधान रह किसी भी तरह स्त्रियों के मोहमें न फंस नहीं तो महान आपत्तियों में फंस जायगा और निरन्तर तुष्णावान रहकर व्याकुल रहेगा। आत्मीक सुख का प्रेमी होना योग्य है जो स्वाधीन है, पराधीन सुख में लिप्त होकर संसारमें कष्ट पाना उचित नहीं है। स्त्री विषय का सुख सदा प्राणीको कष्टमें पटकने वाला है। जैसा सुभाषितरत्नसंदोह में श्री अमितगति आचार्य कहते हैं