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तस्यभावन।
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कठिनता से बचने योग्य ऐसे ( भववनं ) संसाररूपी वन में (ये:कषायविषये ) जिन इंद्रियों के विषय और क्रोधादि कषायों के द्वारा (त्वं अज्ञानवश ) तू अज्ञान के फंदे में पड़ा हुआ ( अनेकधा ) अनेक तरह से (पीड़ित :) दुःखी किया गया है (रे) रे चतुर पुरुष तू (अधुना ) अब तो ( पूतं ) पवित्र ( ज्ञानं ) ज्ञानको (उपेत्य) पा कर (तान् ) इन विषय कषायको (अशेषतः ) सम्पूर्णपने ( विश्वंसय) नाश करें। (स्फुट ) यह बात साफ है कि (विद्वांसः) विद्वान पुरुष ( समये ) अवसर पाकर ( शत्रुन् ) शत्रुओं को ( अहत्वा ) बिना मारे ( न परित्यजति ) नहीं छोड़ते हैं ।
मावार्य - आचार्य कहते हैं कि इस संसार वनमें कषाय और विषय बड़े भारी लुटेरे हैं। अज्ञानी प्राणी इनके मोह में फँसकर
नमें घूमता फिरता है हिंसादि क्रूर कर्मोंको करता है फिर उन पापों के फलसे अनेक प्रकारके दुःखोंको उठाता है। इनके फंदसे बचना चाहिए। उपाय यह है कि इन शत्रुओं को इसने अज्ञान से मित्र मान लिया है सो अब यह उस अज्ञानको छोड़े और यह ठीक - २ समझे कि ये मित्र नहीं हैं किन्तु बड़े प्रबल शत्रु हैं । इनके मोह में पड़कर मैं दिनरात अपनी ज्ञानानन्दमई संपदा को लुटा रहा हूँ। जिस समय यह पवित्र ज्ञान हो जायगा कि मैं मोक्ष महलका रहने वाला त्रिलोकज्ञ, त्रिकालज्ञ, अविनाशी, परम वीतरागी, स्वाधीन आनन्दका भोगी परमात्मा हूं मेरा और इन पौद्गलिक रागादि भावोंका क्या सम्बन्ध है । ये कलुषता लिए हुए हैं में शान्त रूप हूँ - ये दुःखदाई हैं मैं सुखरूप हूँ - ये जड़ हैं व ज्ञान के निरोधक हैं मैं चेतन हूं-ये अनित्य हैं मैं अविनाशी हूँ- ये आकुलताकारी हैं में आकुलता रहित हूँ। जिस समय यह भेदविज्ञान उत्पन्न होगा और यह सम्यकदृष्टि होकर अपने आत्मसम्पदा को देखता हुआ वहां से ज्ञान वैराग्य शस्त्रों