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तत्त्वभावना
एकभने रिपुन्नगदुःखं जन्मशतेषु मनोमवदुःखम् । चाधियेति विधिपत्य महान्तः कामरिक्षणतः क्षपति ।५९४ संयमधर्मविपद्धशशेराः साधुमटा: शरवरिणमुग्रम् । ‘शीलतपःशितशास्त्रनिरातैर्दर्शनबोधवलाद्विधनन्ति ॥५६५ __ भावार्य शत्रु या मर्प एक जन्म में दुःख देते हैं। परन्तु काम देवके द्वारा सैकड़ों जन्मों में दुःख प्राप्त होता है इसलिए महान पुरुष बुद्धि द्वारा विचार करके इस कामरूपी शत्रु को क्षण में नाश कर देते हैं। जो वीर साधु संयम और धर्म के पालने में अपने शरीरको लगाने वाले हैं वे शोल व सपरूपी तीक्ष्ण बाणों को मारकर अपने सम्यग्दर्शन और सम्यमान के नल से इस भयानक कामरूपी वैरोका संहार कर डालते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द मिथ्याती अज्ञान भावधारी नारीन में फर रसी। पुन पुन लह भय कष्ट आश सुखको तजता नहीं दुर्भती ।। जिम भगतृष्णा बीच चाह जलको तजता नहीं मग कमी । धिक धिक् प्राणी कष्टकार मोहं जोता न जाता कमी ॥६४
उत्यानिका-आगे कहते हैं कि भव्य जीदोंको उचित है कि आत्माके बैरी जो विषय कषाय हैं उनको नाश करें।
पापानीकहसंकुले भववने दुःखादिमिर्दुर्गमे । मेरज्ञानवशः कषायविषयस्त्वं पोडितोऽनेकधा ।। रे तान् ज्ञानमुपेत्य पूसमधुना विध्वंसयाशेषतो। विद्वांसो न परित्यजति समये शतनहत्या स्फुट ।। अन्वयार्थ--(पापानोकहसंकुले) हिसादि पापरूपी वृक्षों से गावभरे हुए तथा (दुःखादिभिः दुर्गमे) दुःख शोक आदि कष्टोंसे