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स्वभावना
को क्षयकारी श्री जिनेन्द्रका धर्मरूपी अमृत है, इसके बिना कोई बचा नहीं सकता है । वास्तव में वही मानव बुद्धिमान है जो इस मानव देह को अत्यन्त दुर्लभ व छूटने वाला मानकर इसको आत्म धर्म में लगाकर सफल करते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
क्षण में माशे वर शरीर तेरा है मृत्यु हाथो बड़ा । मय से वासे बार बार लेके क्यों है तु बाहर खड़ा ॥
या नहि करता कि होय भरमा मानें ममर मैं हूँ । रे मन ! मूर्ख पापकर्म उद्यम करता तुझे क्या कहूँ ॥५६॥ उत्पातिनका- आगे कहते हैं कि जो परिग्रहवान हैं वे सदा आरम्भ के विकल्प किया करते हैं और जंनधर्म में प्रोति नहीं करते ।
शिखरिणी वृत्तम् करिष्यामी व कुतमिदमिदं कृत्यमधुना । करामीति वेय मयसि संकलं कालमफलम् ॥ सवा रागद्वेषचयनपरं स्वार्थविमुखं ।
न लेने शुचिता मंचसि रंमसेनिर्वृतिकरे ||२७||
अन्वयार्थ --- ( इदं ) यह ( करिष्यामि) मैं करूंगा (वा) अथवा
( इथं कृतं) यह मैंने किया था ( अधुना इदं कृत्यं करोमि ) या अब 新 यह काम करता हूँ (इति) इस तरह (व्यग्रं) घबड़ाया हुआ ( सदा ) हमेशा ( रागद्वेषप्रचयनपरं ) रागद्वेष के करने में लगा हुआ (स्वार्थं विमुख ) अपने आत्मा के हित में विमुख होता हुआ तू
( सकलं कालं ) अपने सम्पूर्ण जीवके समय को (अफलं) निष्फल
( नयसि) गमा रहा है परन्तु (शुचितस्ये) पवित्र तत्व को बताने