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तस्वभावना
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ऐसी मूखंता यह मत कर रहा है कि बारबार शंका किया करता है कि कहीं मरण न आ जावे परन्तु इस बातमें अपना मन नहीं जमाता है कि मरण तो एक दिन जरूर आवेगा ही मुझको सावधान हो जाना चाहिए और ऐसा उद्यम करना चाहिए जिस से मेरे आत्माका कल्याण हो, मैं मरकर दुर्गतिमें न जाऊँ । यह ऐसी मखंता करता हैं कि फिरभी अपने को अजर अमर समझता है और मनचाहा अधर्म कार्य करता रहता है. यही बड़े म्बेद की बात है। प्रयोजन यह है कि हे भव्य जीव ! मरणरूपी हाथी किस समय इस शरीररूपी घरको तोड़ डाले इसका कोई समय नियत नहीं है । वह जब अचानक आ जाता है उस समय कुछ उपाय नहीं बन सकता। इसलिए मरणके आने के पहले हो तुझे अपना आत्महित कर लेना चाहिा और वह उत्तम कार्य एक आत्मध्यान है। उसकी तरफ पूर्ण. लक्ष्य देना चाहिए, यह तात्पर्य है।
स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंद्रोहमें कहते हैं-- मृत्यव्याघ्रभयंकराननगतं भीतं जराव्यात--- स्तोत्रव्याधिदुरन्तदुःखसरुमत्संसारकांतारगम् ॥ क-शन्कोति शरीरिण विभवने पातुं नितान्तातुरं । स्थकरवा जातिजरामतिक्षतिकरं जैनेन्द्रधर्मामृतम् ॥३१७॥
भावार्थ--यह शरीरधारी प्राणी ऐसे भयानक संसाररूपो वनमें पड़ा हुआ है जहां तीन रोग व दुःसह दुःखमई वृक्ष भरे हैं व जहां बुढ़ापारूपी शिकारी है जिससे वह डरता रहता है व जहाँ मरणरूपी सिंह है और यह प्राणी उसके भयंकर मुख के बीचमें आ गया है । अब इस महान् व्याकुल प्राणी को तीन भुवन में ऐसा कौन है जो बचा सके ? यदि कोई है तो जन्मजरा मरण