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तस्वभावना
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भावार्थ- जरासे भी परिग्रह से मोहकी गांठ दृढ़ हो जाती है । इससे तृष्णा की बुद्धि ऐसी होती है कि उनकी शांति के लिए सर्व जगत भी समर्थ नहीं होता।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द नाना उद्यम बांध-बांध दुष्कर संचय परिग्रह किया। आवा अब कहिं मरण बल नहिं चला तृणवत् सुत्याग जुलिया। दुःखकारी तिहजान बुधजन तिसे पहले हि त्यागनकरी। मूरख मलगति मोहक तु गहके क्यों स्माग लज्जाहरो ॥५९lt
उत्पानिका-आगे कहते हैं कि जो मानव भाई, पुत्र, मित्रादि में मोह करता है वह क्या शोक करके कष्ट पाता है।
स्वाभिप्रायवशारिभिन्नगतयो ये भ्रातधुनावयः। सांस्त्वं मीलयितुं करोषि सततं चित्त प्रयास व्या ।। गच्छन्तः परिमाणको वश विशः कल्पान्सवातेरिताः । शक्यंते म कदाचनापि पुरुषैरेफन कतुं ध्रुवम् ॥६॥
अन्वयार्थ-(भ्रातपुत्रादयः) जो भाई व पुत्र आदि कुटुम्बी (स्वभिप्रायवशात्) अपने-अपने आशयरूप भावोंके द्वारा कर्म बांधकर (विभिन्नगतयः) भिन्न-२ गतिको चले गए हैं तान) उनसे (मीलयितुं) मिलने के लिए(चित्त) रे मन(त्व) तू(सत्ततं) निरन्तर (प्रयास) प्रयत्न(वृथा) बेमतलब (करोषि) करता है (कल्पांतवातेरिताः)कल्पकाल की पवनकी प्रेरणासे(परिमाणवः) जो परमाणु (दश दिशः) दस दिशाओं में (गच्छन्तः) चले गए हैं उनको(एकत्र कर्तुं) इकट्ठा करना (ध्रुव)निश्चय से (कदाचनापि कभी भी (पुरुषः) पुरुषों के द्वारा (न शक्यन्ते) नहीं शक्य हो सकता है।