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तस्वभावना
अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का उद्यम करना चाहिए । स्वामी अमितगति सुमाषितरत्नसंदोह में कहते हैंसौख्यं यदन विजितेन्द्रियशनवपः । प्राप्नोति पापरहितं विगतासरायम् ॥ स्वस्थं तवारमकमनात्मधिया पिलभ्यं । किं तबदुरन्तविषयानलतप्तवित्तः ॥१४॥ भावार्थ:-जिस महात्मा ने इन्द्रियरूपी शत्रु के घमंड को मर्दन कर दिया है वह जैसा पाप रहित तथा अपने मात्मामें ही स्थित अनात्मज्ञानी जीवों से न अनुभव करने योग्य आत्मीक सुख को पाता है वैसे सुख को वह मनुष्य कदापि नहीं पा सकता है जिसका चित्त भयानक विषयों की अग्नि से जलता रहता है ।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द रे मन ! तूने भोग भोग छोड़े इन्द्रिय विषय बहु तरह । क्यों तू चाहे बारबार उनको तृष्णाग्नि वृद्धि करें । जो तष्णातुर होय भोग करते तुप्ति न होवे कमो । अग्नि से जलते कुखत माही नहि बेल उगती कमी॥६१।।
उत्थानिका--भागे कहते हैं कि इस जीवको पर पदार्थ में अहंकार छोड़कर आत्मध्यान करना योग्य है ।
शूरोऽहं शुभधोरहं पटुरहं सर्वाधिक श्रोरहं । मान्योहं गुणवानहं विभुरहं पुंसामहं चानणीः।। इत्पात्मन्नपहाय दुष्कृतकरी वं सर्वथा कल्पनाम्। शश्ववृध्याय तदात्मतत्वममलं नशेयसी श्रीर्यतः ।।२।।