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तस्वभावना
भावार्थ-जैसे एक वृक्षरात्रिको बना करोटा लो सवेरा होते ही सर्व दिशाओं में यकायक भाग जाते हैं। इसी तरह प्राणी एक कुल में आयुपर्यंत ठहरकर फिर मरकर अपने-२ कर्मानुसार अन्य कुलोंमें आश्रयकर लेते हैं विद्वान किस किसका सोच करे ? सोच करता था है।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द भाई पुत्र कलन मित्र आदि निज भाव अनुसार थे। गतिको बांधत जात मिल गतिको मिलते न को काल थे। सिनका सोच वृथा न बुद्ध करते परमाणु मिलना कठिन । जो भागे बसविशा पवन सेतो कल्पांत के अशुभ विन ॥६॥
उत्पानिका-आगे कहते हैं कि भोगोपभोग पदार्थोकी इसका करना वृथा है क्योंकि उनसे तृत्ति नहीं होती है।
भोज भोजमपाकृता हुण्य ये भोगस्त्वयानेकधा । तांस्त्वं कांक्षसि कि पुनः पुनरहो तन्नाग्निनिक्षेपिणः।। प्तिस्तेषु कदाधिवस्ति तव नो तृष्णोदयं विभ्रतः। देशे चित्रमरी चिसंनयचिते बरली कुसो जायते ॥११॥
अन्वयार्थ-हदय हे मन (बया) तेरे द्वारा (ये अनेकधा भोगाः) जो अनेक प्रकार के भोग(भोज भोज)भोग-भोग करके (अपाकृता) छोड़े जा चुके हैं (अहो) अहो बड़े खेद की बात है कि(त्वं)तू(पुनः पुनः)बाराबार(तान् )उन ही की(कांक्षसि)इच्छा करता है वे भोग (तत्र अग्निनिक्षेपिणः) तेरी इच्छा में अग्ति डालने के समान है अर्थात तृष्णाको बढ़ाने वाले हैं (तृष्णोदयं विनतःतव) तृष्णा की बुद्धिको रखने वाला ऐसा तू जो है सो तेरी (तुप्तिः) तुप्ति(तेषु उन भोगोंके भीतर(कदाचित्)कभोभो