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तत्त्वभावना
अन्वयार्थ-(मात्मन) हे आत्मा (अहं शूरः) मैं वीर हूँ (अहं शुभश्रीः) मैं शुभ बुद्धिधारी हूँ (अहं मान्यः) मैं माननीय हूं (अहं गुणवान्) मैं गुणवान् हूँ (अहं विभुः) मैं समर्थवान हूँ (अहं पुंसाम् अग्रणीः) तथा मैं पुरुषों में मुखिया हूँ (इति) इस तरह को (दुष्कृतकरी) पापको बांधनेवाली (कल्पनाम्) कल्पना को व मान्यताको (सर्वथा) सब तरह से (अपहाय) दूर करके (त्वं)तू (शश्वत्) निरन्तर(तत् अमल आत्मतत्वं) उस निर्मल. आत्मतत्वको (ध्याय)ध्यान कर (यतः) जिससे (नःश्रेयसीश्री.) मुक्तिरूपी लक्ष्मी प्राप्त होती है।
मावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने बताया है कि आत्मध्यान के लिए आत्मा के यथार्थ जाम होने की बाद
जारी लोग शरीर, धन, कुटुम्ब, प्रतिष्ठा, बल, बुद्धि आदि पाकर ऐसा महकार कर लेते हैं कि मैं सुन्दर हूँ, मैं धनवान हूँ, मैं बहुकटुम्बी हूँ, मैं प्रतिष्ठावान हूँ, मैं बलवान हूं मैं धनवान हूँ यह उनका मानना बिलकुल मिथ्या है क्योंकि एक दिन वह आएगा जिस दिन ये सब परपदार्थ व परभाव जो कर्मों के निमित्त से हुए हैं छूट जाएंगे और यह जीव अपने बांधे पुण्य पापको लेकर चला जाएमा । ज्ञानो जीव अपना आत्मपना अपने आत्मामें ही रखते हैं वे निश्चय नयके द्वारा अपने आत्मा के असली स्वभाव पर निश्चय रखते हैं कि यह आत्मा सर्व रागादि विभावों से रहित है सर्व कर्म के बंधनों से रहित है। सर्व प्रकार के शरीरसे रहित है। आत्माका सम्बन्ध किसो चेतन व अचेतन पदार्थसे नहीं है । ये सब शरीरसे सम्बन्ध रखते हैं जो मात्र इस आत्माका क्षणिक धर है इसलिए उन ज्ञानी जीवों की अह बुद्धि अपने ही शुद्ध स्वरूप पर रहती है । व्यवहार में काम करते हुए गृहस्थ ज्ञानी चाहे यह कह कि मैं राजा हूं, वंद्य हूँ, शूर हूँ, चतुर हूँ, समर्थ