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तस्वभावना
जाकर इसे छोड़ दूंगा। तब उसने बड़ी हँसी उड़ाई कि अरे जिसको फेंकना ही है उसको उठाने की क्या जरूरत थी ? इसी दृष्टांतसे आचार्य ने समझाया है कि यह परिग्रह त्यागने योग्य है, इसे ग्रहण करना बुद्धिमानो नहीं है-'यह आत्मकार्य में बाधक है वास्तव में चेतन अचेतन परिग्रह का मोह आत्माको करोड़ों संकल्प विकल्पों में पटक देने वाला है। इससे जो निर्विकल्प समाधि को चाहते हैं और आत्मीक आनंद के भोगने के इच्छुक हे उनको यह परिग्रह त्यागना ही श्रेयस्कर हैं। श्री शुभचन्द्र आचार्य ने ज्ञानार्णव में कहा है
लामो विषयमा मलको नाममा रुध्यते वनिताब्याधर्नरः संमेरभिद्रुतः ॥१८॥
भावार्थ—यह मानव परिग्रहों से पीड़ित होता हुआ इंद्रियों के विषयरूपी साँसे काटा जाता है, काम बाणोंसे भेदा जाता है तथा स्त्रीरूपी शिकारीसे पकड़ लिया जाता है। ....
मः संगपंकनिर्मग्नोऽप्यपवर्गाय घेष्टते। समूढः पुष्पनाराविमिन्यात विशाचलम् ॥१६॥
भावार्य-जो मूर्ख परिग्रहको कीचड़ में डूबा हा भी मोक्ष के लिए चेष्टा करता है यह मानों फूलों के बाणोंसे सुमेरु पर्वत को तोड़ना चाहता है।
अणुमात्रावपि प्रधान्मोहग्रंथिईडोमवेत् । . विसर्पति ततस्तृष्णा यस्या विश्वं न शान्तये ॥२०॥ . .