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तत्वभावना
वैसा ही कष्ट होगा जैसा मेरेको होता है यह भाव जिनके दिल में होता है वे ही धर्मात्मा हैं। धर्म जिसमें नहीं है वह वास्तवमें मनुष्य ही नहीं है। स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं
हरतिजननदुःखं मुक्सिसौख्यं विद्यते । रपति शुमति पापति धुनीते ॥ अवतिसकलजन्तून् कर्मशम्निहन्ति । प्रशमयति ममोर्यस्य बुधा धर्ममाहः १७०८॥ भावार्ष-जो संसार के दुःखोंको हरता है, मुक्तिके सुख को देता है, सच्ची बुद्धि बनाता है, पाप की बुद्धिको मिटाता है, सर्व 'प्राणियों की रक्षा करता है, तन तथा मनको शांत रखता है उसे ही बुद्धिमानों ने धर्म कहा है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो करता दिन रात कार्य उल्टे वाधा करे सर्ववा। जो धर्मी कधिवान आवंचित हो वाको न मारे कथा।। आपसमें कारण बिना हि हिंसक ओ धर्म पावे नहीं। प्राणोरक्षक धर्म बिन जगत में को और भावे नहीं ॥५॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जिस परिग्रह को एक दिन छोड़ना पडेगा उसको तु अपने आप ही क्यों नहीं छोड़ता है
नामारंभपरायणेनरवरराषज्यं यस्त्पज्यते । दुःप्राप्योऽपि परिप्रहस्तणमिव प्राणप्रयाणे पुनः ।। आवावेव विमुंच दुःखजनक तं त्वं विधा दूरतश्वेतो मस्करिमोरकम्यतिकरं हास्यास्पद मा कृपाः ॥५६