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सरदभावना
सच्चे आत्मतत्व का ज्ञान होथे और इस मोक्षमार्ग को प्राप्तकर सके । अतएव आचार्य कहते हैं कि द्धिमान प्राणी को उचित है कि गृहस्थ के जंजाल में चावला न होवे और जिनवाणीको शरण लेकर अपना सच्चा हित कर डाले।
वास्तव में जो इंद्रियों के विषयों में उलझ जाता है उसका जन्म यों ही चला जाता है। सुभाषितरत्नसंदोह में स्वामी अमित गति जी कहते हैं--
एकैकमक्षाविषयं मजतास
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1. गमाते, यति हामिमाम् ! . , . ::. : पंचाक्षगौचररतस्य झिमस्ति याच्य. . .. मक्षार्थमिश्यमलधीरधियस्त्यजन्ति ।।८।।
भावार्थ-एक एक इंद्रियों के वश में रहने वाले जीवों को यदि यमराज के घर का अतिथि होना पड़ता है तब जो जीव पांचों इंद्रियों के विषय में रत होता है उसके लिए क्या कहा जावे ऐसा जानकर निर्मल और धीर बुद्धि रखने वाले पुरुष इंद्रिय विषयों को छोड़ देते हैं।
मूल श्लोकानुसार शिखरिणी छन्द करूँगा यह कारज अर कर चुका कार्य यह मैं । अभी यह करता हूं रत नित प्रोति मोह तन्मय ॥ गमावे सब जीवन विफल कर निज हित न देखे। शिवंकर जिन बच में ध्यान कुछ भी न देखे ॥५७।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि धर्मही प्राणीका रक्षक हैकुर्वाणोऽपि निरंतरामनुदिनं बाधां विरुद्धकियां । धर्मारोपितमानसर्न रुचिभिर्यापाग्रते कश्चन ।।