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दिमनः
चाहिए और ज्ञान प्राप्त करके जिसको हमें ध्याना चाहिए यह मातमराम कहीं दूर नहीं है आपही हैं अपने शरीरभरमें संपूर्णपमें व्यापक या फैला हुआ है । जैसे घड़े में जल भरा होता है ऐसे ही अपने शरीररूप घट में सर्व स्थान में फैला हुआ है। वह पूर्ण ज्ञान मय है--उसका ज्ञान ऐसा निर्मल है कि उसमें सर्व ही जानने योग्य पदार्थ दर्पण के समान झलकते हैं, इस आत्मा की जब तक संबंध शरीरसे रहता है तबतक ही हम अपनी आँखों से चंद्रमा, सूर्य ग्रह, तारे आदि पदाथों को देख सकते हैं। यद्यपि लोके में प्रकाशमान हैं और जगतके बाहरी पदार्थोकी झलकति है तथापि यदि हमारे भीतर आत्मतत्व न हो तो हम उनको देख नहीं सकते तब तो वे हमारे लिए मामो अंधकार के समूह ही हैं। जिस आत्मा के होते हुए हम बाहर भीतर सब कुछ देख सकते हैं व जान सकते हैं तया यहीं वह आत्मतत्व है जिसका योगीगण ध्यान करते हैं। तीर्थकर भी इसोका हो अनुभव करते हैं। वही यात्मतत्व हमारी देहं में हैं वह बिलकुल निर्मल है, मौके मध्य पड़ा है तो भी स्वभाव से उनसे भिन्न है। यह ऐसा निश्चय है कि कभी भी अपने स्वभाव को स्थगिता नही है ऐसे ही आत्म तत्व का चिन्तयन हरएक गृहस्प या भुमि को करना उचित है । यहां पर आचाय ने बता दिया है कि जिस तत्व पर पहुंचना है. बं जिस तत्व का ध्यान करना है वह तत्व आप ही हैं, वह सत्वं विलकुल हमको प्रगट है । यदि वह शरीरमें न होवे तो इंद्रियाँ कुछ जान नहीं सकती हैं। वह तत्व ज्ञानस्वरूप है सो भी अच्छी तरह प्रमट है । यह निर्मल जल के समान परमशांत, परम पवित्र व परम आनन्दमई है, इस तरह जो ज्ञानके चिह्नसे उसे पकड़ेगा उसे अवश्य वह तत्व मिल जाएगा । बड़े-२ साधजनों को वही तत्व प्यारा है, हमें भी उसे ही ध्यानी चाहिए। श्री पद्मनदि