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सस्वभावना
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मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो बुध मातम काय उद्यममती सो कार्य करते नहीं।' जासे कुत्य अकृत्य बोध नहि हो मिज मोक्ष होषे नहीं। नहि होये वैराग्य कर्म क्षय ना ध्यानात्म हो नहीं। ओजन बाधा शीत दालनमती सो अग्नि शमता नहीं ॥५२
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ध्याता मानक को उचित है कि क्रोधादि भावों को दूर रखें।
डामक्रोधविषावमत्सरमवद्वेषप्रमावादिभिः। . शुद्धध्यानविद्धिकारिमनसः स्यैर्य यतः क्षिप्यते। काठिन्यं परितापवानबरहमनो हुताशेरिक। स्माज्या ध्यान विधायिपिस्तत इमे कामावयों दूरतः ॥५३॥ .
अन्वयार्ष-(यत:) पयोंकि कामक्रोधावपादमत्सरमवद्वयप्रमादादिभिः) कामभाव, क्रोधभाव, शोक, ईर्षा, गर्व, द्वेष व प्रमाव आदि अशुद्ध भावों के द्वारा(शुद्धध्यानदिवद्धिकारिमनसा) शुद्ध ज्यानको बढ़ाने वाले मन की(स्थर्य)स्थिरता(परितापदानचतुर हुताशेः हेम्नः काठिन्यं इव) तीव्र गर्म करने वाली अग्नि के द्वारा सुवर्ण की कठिनता के समान (क्षिप्यते नष्ट हो जाती है (ततः)इसलिए(ध्यानविधायिभिः)ध्यान करने वालों के द्वारा (इमे कामादयः) ये काम क्रोधादि भाव (दूरतः) दूर से ही (त्याज्या:) छोड़ने योग्य है। . . . . : भाषा--जैसे सोना कठिन होता है परन्तु यदि उसको अग्नि की ज्वालाओं का ताप लग जाये तो पतला होकर बहने योग्य हो जाता है, सोने की कठिनता नष्ट हो जाती है, इसी तरह जो मानव आत्मध्यान करता चाहते हैं और वीतरागभावों को मन में बढ़ाना चाहते हैं उनके मन की घिरता, काम, क्रोध,