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तत्त्वभावना
मूल श्लोकानुसार शार्बल विक्रीडित छन्द काम क्रोध विषाद मोह मद से द्वेष प्रमादावि से । जो मन निर्मल ध्यान बीध रत हो थिरता न होवे तिसे ॥ जैसे सुबरण अग्नि ताप वश हो काठिभ्य तज देत है। इस लख ध्यानी काम आदि सबको अति दूर कर देता है । ५३ उस्थानिका -- आगे कहते हैं कि ध्यानीजन मुक्तिके लिए हो ध्यान करते हैं
यादृश्येन्द्रियगोचरोरुगहने लोलं धरिष्णुं चिरं । दुर्वारं हृदमोदरे स्थिरतरं कृत्वा मन मर्कटम् ॥ ध्यानं ध्यायति मुक्तये भवतले निर्मुक्तभोगस्पृहो । नोपायेन विना कृता हि विधयः सिद्धि लभते भुवं ॥ ५४॥
अन्वयार्थ - (निर्मुक्तभोगस्पृहः ) जिस महात्मा ने भोगों की इच्छाको त्याग दिया है वही ( दुर्वार) इस कठिनता से वश में आने योग्य (लोसं ) लोलुपी या चंचल ( मनोमर्केटम् ) मन रूपी बन्दर को (इन्द्रियगोचरोरुगहने) जो पांचों इन्द्रियों के भोगरूपी महान वन में (चिरं ) अनादिकाल से (वरिष्णु) कीड़ा कर रहा है ( ध्यावरय) वहां से हटाकर (हृदयोदरे) हृदय के भीतर (स्थिरतरं कृत्वा) पूर्ण स्थिर करके (अवत: मुक्तये ) संसार के फैलाव से छूट जाने के लिए (ध्यानं ध्यायति) ध्यान का अभ्यास करता है । (हि) यह निश्चय है कि ( उपाये बिना ) उपाय के बिना ( विधयः कृताः ) जो रीतियां की जायें तो वे (ध्रुवम् ) खातरी से ( सिद्धि) सफलता को ( न लभते ) नहीं पाती हैं ।
भावार्थ- संसार बाठ कर्मों के बंधन से ही चल रहा है, इस लिए इन कमका नाश होना ही संसारका नारा है और मोक्षका