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रहे । यदि साधु हो तो रात दिन वैराग्य में भीजा रहकर ध्यान की शक्ति बढ़ाये । गृहस्थ में कभी भी ऐसे मिथ्यात्व अज्ञान, अन्याय आदि के कार्य न करे जिनसे विषयों में अन्धा होकर इस नरजन्म के अमूल्य समयको यों ही खो दे और पीछे पछताना पड़े । मानवजन्म का समय बड़ा ही अमूल्य है । जो आत्महित में दक्ष हैं वे हो सच्चे धर्मात्मा गृहस्थ व साधु हैं
सत्त्यभावना
श्री पद्मनंदि मुनिने धर्मोपदेशामृत में कहा है कि आत्मध्यान करना ही श्रेष्ठ है ।
आत्मामूर्तिविवजितोपि वपुवि स्थित्वापि दुर्लक्षतां । प्राप्तोपि स्फुरति स्फटं यदहमित्युल्लेखत: संततं ॥ तरिक मुह्यत शासनावपिगुरोर्भ्रान्तिः समुत्सृज्यतामंतः पश्यत निश्चयेन ममसा तं तन्मुखाक्षत्रजाः ||६५ ||
भावार्थ- आत्मा अमूर्तीक है तो भी शरीर में मौजूद है, यद्यपि दिखाई नहीं पड़ता है तथापि 'में' इस शब्द से निरन्तर प्रगट है तब क्यों तुम मोहित होते हो, गुरु के उपदेश से भ्रम को छोड़ो और मन के द्वारा निश्चय करके उसी आत्मा की तरफ अपने इन्द्रियसमूह को तन्मयी करके उसी का ही अनुभव करो !
वास्तव में आत्मध्यान ही आत्माके कल्याण का भाग है इस लिए उसीका ही यत्न करना एक बुद्धिमान प्राणी के लिए हितकारी है ।