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पड़ते हैं, अमृत फल खानेवाले को वे फल स्वादिष्ट नहीं भासते हैं | आत्मीक सुखका स्वाद हो परम विलक्षण है। इंद्रिय सुखका लाभ प्राणीको महान अज्ञानी बना देता है। अमितगति महाबाज सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं
तत्यभावना
लोकाचितोऽपि कुलजोपि बहुश्रुतोपि, धर्मस्थितापि विरतोपि शमान्बितपि ।
अक्षार्थपन्नगविषाकुलितो मनुष्यस्तन्नास्ति कर्म कुरते न यवन नियम् ॥१००॥
भावार्थ- कोई मानव लोगोंसे पूज्यनीय हो, अत्यन्त कुलीन हो, बहुत शास्त्रका पारगामी हो, धर्ममें चलने वाला हो, विरक्त हो व शांतभाव सहितभी हो। यदि उसके इन्द्रिय विषयरूपी सर्प का विष चढ़ जावे तो वह आकुलित होकर ऐसा बावला हो जाता है कि वह कौनसा निन्दनीय कार्य है जिसे वह नहीं कर डालता है । वास्तव में इन्द्रिय सुखमें आशक्ति मानवको धर्मभाव से गिराने वाली है ।
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मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द
विषय सुख विकारं दुःखमय छोड़ता जो । निरूपम थिरपावन आत्मसुख वेदता सो ॥
जो दोनों कर्ण सूबता पर न सुनता । से निज कर्णोंमें, घोष प्रच्छन्न सुनता ॥ ३६ ॥
उत्पानिका -- आगे कहते हैं कि पर संपत्तिको अपना मानना अज्ञान है