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तस्वभावना
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मावा-मेरा कोई सम्बन्ध न किसी आश्रय करने वाले इस सेवक से है न किसी मित्रसे है। मेरा प्रेम इस शरीर पर भी नहीं है। मैं अब केवल अकेला ही सुखी हूं इस संसार में अनादि से इस शरीरादि के संग से बहुत कष्ट पाए इसलिए मैं अब इनसे उदास हो गया हूं, मुझे सदा एक अपना निराला रूप ही रुपता है। वास्तवमें ज्ञानीके ऐसा ज्ञानभाव सदा रहता है।
मूलश्लोकानुसार शार्दुलविक्रीडित छन्द क्रोधोधी अविशनने सन यही मम नाराकर दुख दिया। सो जड़ हूं मैं चेतना गुणमई, सम्बंध मुझसे चु यथा । मेरा है सम्बन्ध निस्म निजस सो नाश होके नहीं। इम लख बुधजन रागद्वेष कोई, किचित् जु करता नहीं ॥४२
उत्थानिका--आगे कहते हैं कि शरीरका मोह ही संकटोंका मूल है
एकत्रापि कलेवरे स्थितिधिया कर्माणि संकुर्वता। गर्यो दुःषपरंपरामपरता यवात्मना लभ्यते !! सा स्थापयता विनष्टममता विस्तारिणी संपवम् । कांशकणनपावरेण हरिणाम प्राप्यते कथ्यताम् ॥४३
अन्वयार्थ-(यत्र) जिस संसार से (एकत्रापि कलेवरे) इसी • एक शरीर में ही (स्थितिधिया) स्थिरतापने की बुद्धि करके (कर्माणि संकुर्वता) नाना प्रकार पाप कर्मों को करते हुए (बारमना) आत्माने (गुर्वी) बड़ी भारी (दुःखपरम्परानुपरता) दुखों की संतान को बढ़ाने वाली अवस्था (लभ्यते) प्राप्त कर ली है (तत्र) उसी संसारमें (विनष्टममता) ममतारहितपनेको या वीतरागभावको (स्थापयता) स्थापित करने वाले आत्मासे (का) कौनसी (विस्तारिणी) बड़ी भारी (सम्पदा) सम्पदा (नहीं प्राप्यते) न प्राप्त कर ली जा सकती है कि जिसको