________________
तत्वभावना
[ १२३
में मोह न करके नित्य निरंजन निज आत्मा में ही प्रेम नढ़ाना सचित है। निश्चयपंचाशत् में पद्मनंदि मुनि कहते हैं
पुराविपरित्यक्ते मज्जत्यानंदसागरे मनसि। प्रतिभाति यत्तदेकं जयति पर चिन्मयं ज्योतिः ॥३॥
भावार्थ-जब मनका मोह शरीरादि से छूट जाता है और यह मन आनंदसागर में डूब जाता है तब मन में जो कुछ प्रतिभास होता है वही एक परम चैतन्यमय ज्योति है वह जयवंत. रहो।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो कोई इस एक बेहको हो, थिर मान अघको करे। सो सन्तान महान् दुःख लहिके चारों गतीमें फिरे ।। पर जो ममता टाल आप माही, आपी रती धारता । अनुपम शिव संपत अपारलहता इब्रादि नहिं पावता॥४३।।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जिन बातोंसे शरीरका लाभ होता है उनसे आत्मा का बुरा होता है इससे उनसे बचना ही हितकर है
ये भाषः परिवधिता विवधते कायोपकारं पुनस्ते संसारपयोधिमजनपरा ओबापकारं सदा ।। जीवानुग्रहकारिणो विवधते कायापकारं पुननिश्वित्पति विमुच्यतेऽनघधिया कायोपकारि विधा ।।४४
अन्वयार्थ-(ये) जो (परिवधिता: भावाः) धारण किये हुए व बढ़ाए हुए रागादि भाव व स्त्री, पुत्र, मित्र राज्यधन सम्पदा