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तत्त्वभावना
___ अन्वयार्थ--(आत्मा) आत्मा (ज्ञानी) ज्ञान स्वरूप है, (आसेव्यमानः) यदि इसकी सेवा को आवे तो यह (परमम्) उत्कृष्ठ, (अमल) निर्मल (ज्ञावं) ज्ञान को (वितरित) देता है (पुनः) जब कि (कायः) शरीरु (अज्ञानी) ज्ञान रहित हैं (घोरं मंज्ञानं एव) यदि इसकी सेवा की जावे घोर अज्ञान को ही देता है (जगति) इस जगत में (इद) यह बात (सर्वत्र) सर्व स्थानमें (विदित) प्रसिद्ध है कि (विद्धमानं दीयते) जिसके पास जो होता है वही दिया जाता है (कश्चित्) कोई भी (त्यागो) दानी (स्वकुसुमं) आकाश के फल को (क्वापि) कहीं भी (कस्यापि) किसी को भी (नहिंदत्ते) नहीं दे सकता है।
भावार्थ-यहाँपर आचार्य कहते हैं कि पूर्ण ज्ञान और पूर्णानन्दकी प्राप्ति करना चाहे उनको उचित है कि अपने आत्माका ही सेवन करें। क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप व वीतराग आनन्दमयी है । यदि आत्माका ध्यान किया जायगा तो आत्मा को अवश्य ही जो उसके पास गुण हैं वे स्वयं प्राप्त हो जायेंगे। • यदि कोई शरीर को सेवा करे, शरीर के मोह में रहकर उसकी सेवाचाकरीमें लगा रहे, उसके कारण जो राग, द्वेष, मोह होता है उसीको अपना स्वरूप मानता रहे, रातदिन अहंकार ममकार में लोन रहे तो उस अज्ञानी को आत्मीक गुणों को छोड़कर जड़ अचेतन रूप शरीर व कर्मबंध व कर्मोदय रूप रागद्वेष रस इनको सेवा करते रहने से अज्ञानका ही लाभ होगा, कभी भी शुद्ध ज्ञानकी प्राप्ति न होगी । क्योंकि जगत में यह नियम हैं कि जो किसोको सेवा सध्धे भावसे करता है उसको वह वही वस्तु दे सकता है जो उसके पास है। यदि कोई उससे ऐसी वस्तु मांगे जो उसके पास नहीं हैं तो, वह उसे कभी नहीं दे सकता है।