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तस्वभावना
कभी भी (यात्मीयकार्योद्यम) अपने आत्माके कार्य का उद्यम (न कुरुते) नहीं करता है। (भीसात्मा जनः) भयभीत कायम जन (दुर्वारेण नरेश्वरेण) जिसकी आज्ञा उलंघन करना कठिन है ऐसे राजा द्वारा (हठात्) बलात्कारसे (महति स्वा) किसी महान अपने कार्य में (योजिसे) लगा दिये जाने पर (स्वकीयकार्य) अपने स्वयं के कार्यको (कथंचनापि) कुछ भी (न) नहीं (तनुते) करता है।
भावार्य-यहां पर सादाय बताते हैं कि जैसे को पूर्ख प्राणी किसी राजा के यहां नौकर हो वह राजा उसको किसी कामको पूरा करने की आज्ञा देवे । वह मूर्ख राजासे परता हा दिन-रात राजाके ही काममें लगा रहे, अपना निजका काम करने को समय हो न बचावे तब वह जगतमें मूर्खहो कहलाएगा क्योंकि उसने अपने हितका काम करने के लिए कुछ भी समय नहीं निकाला । इसी तरह जो मूर्ख शरीर में मति आशक्ति रखता हुआ इन्द्रियों का दास हो जाता है। यह निरंतर शरीर को पोषा करता है, आराम दिया करता है, शरीर के लिए धन कमाया करता है, रात-दिन शरीरको आराम देने में लग जाता है वह अपने यात्मीक हितको बिलकुल भूल जाता है। बुद्धिमान प्राणीको शरीरके मोहमें इतमा न पहना चाहिए कि वह अपनी मआत्मोक उप्पति को भूल जावे। यदि वह गृहस्थ है वह धन फमावे, इन्द्रियों को न्यायपूर्वक भोगों में लगाये परन्तु अपने आत्माके कल्याणके लिए धात्म-धर्म को अवश्य सेगम करता रहे। किसी भी दशा में अपने सम्चे धर्मको भूल जाना बड़ी भारी नादानी है। हरएक गृहस्थी को भी सामायिक व प्यान का बभ्यास करना चाहिए लिस्य कर्ममें सावधान रहना चाहिए।