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तस्वभावना
जन्मांमधिकिमज्जिकर्मजनकः कि साध्यते कांक्षितं । यत्कृत्वा परिमुध्यते न सुधियस्तवावरं कुर्वते ॥५१॥
पार्थ - ( इह ) इस संसार में (लक्ष्मीकीतिकला कलापसलनासौभाग्यभाग्योदयाः) धन, यश, कलाओं का समूह, स्त्री, सौभाग्य, भाग्य का उदय आदि ( एते सकलाः ) ये सब पदार्थ (आत्मना ) आत्मा द्वारा ( स्फुटं त्यज्यन्ते ) प्रत्यक्ष छोड़ दिये जाते हैं ( अजितैः) इन पदार्थों को उत्पन्न करने से (जन्मांभोधि:निमज्जिकर्मजनकैः ) संसार समुद्र में ड़वाने वाले कमौका बंध होता है इसलिए इन पदार्थों से (सतां ) सज्जन पुरुषों का ( कि ) क्या (कांक्षित) चाहा हआ मोक्ष पुरुषार्थं ( साध्यते ) साधन किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं साधन होता है । (यत्कृत्वा परिमुध्यते) जिस वस्तु व कामको पैदा करके फिर छोड़ना पड़े ( तत्र ) उस काम में या पदार्थ में (सुधियः) बुद्धिमान लोग (आदर्श) आदर ( न कुर्वते) नहीं करते हैं ।
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भावार्थ - यहाँ पर आचार्यने बताया है कि लक्ष्मी, धन, पुत्र, राज्यपाट, संसारिक यश, कला, चतुराई, स्त्री आदि सर्व पदार्थ मात्र इस देह के साथ हैं। आत्माका और इनका साथ कभी नहीं हो सकता है। एक दिन आत्माको छोड़ना ही पड़ता है। फिर इनके पैदा करने में इकट्ठा करने में, प्रबंध करनेमें, बहुत राग-द्वेष मोह व बहुत पाप का संचय करना पडता है उस पापसे इस आत्माको संसार समुद्र में बना पड़ता है, दुर्गंतिके अनेक कष्टों को सहना पड़ता है तथा जो बुद्धिमानों के लिए इष्ट है अर्थात् मोक्ष व स्वाधीन बास्मोक सुख है वह और दूर होता चला जाता है। इन स्त्री पुत्र धनादि के भीतर मोह करने से आत्मध्यान व वैराग्य नहीं प्राप्त होता जो मोक्षका साधक है।