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तत्त्वभावना
[ १३१ इति मनसि निसान्तं प्रोसिमाधाय धर्म।
मजत अहित धंतान् कामसजून्दरमसान् ॥१०॥ भावार्थ--जा सुख इस लोक में उन महात्माकों को होता है जिनके कामभोगों की इच्छा नहीं रही है वह सुख न देवताओं को और न चक्रवर्ती राजाओं को हो सकता है। ऐसा जानकर मनमें गाढ़ प्रीतिको धारण कर धर्म की सेवा कर और कठिनता से छुटने वाले इन भोगों की इच्छारूपी शत्रुओं को त्याग दे।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो चाहें नित सौख्यको परकुयो हिंसामई कृति करें। करते बुद्धि विनाज मोग रत हो ये सुख कभी ना मरें। जो कोढ़ी मिज खाज टालन निमित अंगांग खुजलावता। साता पाता है नहीं वह कुधी बाधा अधिक पावता ॥४६॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं जो अपने मात्माको अपने मात्मामें स्थिर करता है वही अपने आपका मित्र है व जो ऐसा नहीं करता है वह अपने आत्मा का शत्रु हे
व्यापार परिमुच्य सर्वमपरं रत्नत्रयं निर्मलम् । फुर्वाणो मृशमात्मनः सुहृदसावात्मप्रवृत्तोऽन्यथा । बैरो दुःसहजन्मगुप्ति भवने जिप्त्वा सदा पातयस्थालोज्येति स सजन्मचकितः कार्यः स्थिरः कोविवः ।। अन्वयार्थ---जो (सर्व अपरं व्यापारं) सर्व दूसरे व्यापार को (परिमध्य) छोड़ करके (निसंलं)पवित्र (रत्नत्रय) रस्तत्रय धर्मको भृशं कुर्वाण:) भले प्रकार पालने वाला व (आत्मप्रवृत्तः) अपने मात्माका मित्र है ।(अन्यथा)जो ऐसा नहीं करता है वह (वैरी)