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तत्त्वभावना
सुभाषितरत्नसंदोह में स्वामी अमितगतिजी कहते हैंयश्चित्तं करोषि स्मरशरनिहतः कामिनीसंग सौख्यं । तवत्त्वं चेम्जिनेन्द्रप्रणिगदितमते मुक्तिमार्ने विवध्याः। कि कि सौख्यं न यासि प्रगतनवजरामृत्युःखप्रपंच। संचिन्त्येवं विधिस्त्वं स्थिरपरमधिया तन वित्तस्थिरत्वम् ।४०६
भावार्थ-जिस प्रकार तू कामदेव के वाणसे वींधा हुआ स्त्री भोग के सूख में अपना मन लगाता है उसी तरह यदि तू श्री जिनेन्द्र भगवान से कहे हुए मोक्ष के मार्ग में चित्त को जोड़ देतो तू जन्म जरा मरण के दुःखोंके प्रपंच से रहित क्या-क्या सुख को न प्राप्त करे ? ऐसा विचारकर अपनी बुद्धि को उत्तमपने स्थिर करके उसो धर्म में स्थिरता रखनी चाहिए।
मूल इलोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो सजके व्यापार अन्य जगके रत्नत्रयं निमलं ! सेवे धावं आत्मको रचि धरै सो मित्र आतमपरं ।। जो राचे संतार दुःख पार्वे हैं आत्म बैरी सदा । बुधजन भवभयधार कार्य निजमें थिरता धरें सर्वदा ॥४७॥
उत्थानिका--आगे कहते हैं कि मढ़ पुरुष धनादि में मग्न होकर मरणादि संकटों का विचार नहीं करता है।
मदः संपदधिष्ठितो न विपदं संपत्तिविध्वंसिनी।
दुर्वारा जनमर्दनोमुपयतोमात्मात्मनः पश्यति ।। ... वृक्षव्याघ्रतरापानगव्याधादिभिः सकुलं ।। ___कक्ष वृक्षगतो हुताशनशिखा प्रप्लोषयन्तोमिन ॥४॥ .. अन्धयार्थ- (मढ़ः) मुर्ख (आत्मा) जीव (संपदधिष्ठितः) जो संपत्तिको रखने वाला है सो (आत्मनः)अपने ऊपर (जनमदनी)