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तत्त्वभावना
(शक्रेण नृपेश्वरेण हरिणा) इन्द्र चक्रवर्ती या नारायण नहीं प्राप्त कर सकते हैं । अर्थात अवश्य मुक्ति लक्ष्मीको प्राप्ति की जा सकती है।
भावार्थ-यहाँ पर जादा ने बत:।।।। है कि ममता हो दुःखोंको बढ़ानेवाली है व ममता का त्याग ही मुक्तिरूपीलक्ष्मी को प्राप्त करानेवाला है। इस संसारमें इस जीवने अनन्तकालसे भ्रमण करते हुए अनन्त शरीर पाये व छोड़े व हर एक शरीरमें रहकर व उसी में लिप्त होकर बहुत से कर्मों का बंधन किया। जिस कर्मबंध के कारण संसार में भ्रमण करता रहा । अब यह मानव जन्म पाया है। यदि फिर भी इस शरीर में व शरीर के इंद्रियों में ममता की जावेगी तो ऐसा कर्मों का बंध होगा जिससे इस जीवको नकनिगोद आदि गतियों में जाकर दुखोंकी परिपाटोको बढ़ा देना होगा, फिर मानव जन्मका मिलनाही दुष्कर हो जायगा और यदि यह मानव बुद्धिमान होकर इस क्षणभंगुस व अपवित्र शरीरपर ममत्व न करे और अपने आत्मा के स्वरूप को पहचान कर उसका ध्यान करे तो यदि शरीर उच्च स्थिति का हो व मोक्षपाने योग्य सामग्री हो तो उसी जन्मसे मोक्ष की अनुपम सम्पदाको पा सकता है और यदि शरीर मोक्षके पुरुषार्थ के योग्य न हो तब भी उत्तम संयोगोंके पाने का पात्र होता हुआ परम्परा मोक्ष का अधिकारी हो सकता है । मोक्ष की सम्पदा अनुपम है । वह आत्मीक है, पराधीन नहीं है। वह आत्मा का ही अनंत ज्ञान, सुख वीर्य आदि है। इस मुक्ति की सम्पत्ति को इन्द्र चक्रवर्ती व नारायण आदि भी नहीं पा सकते हैं। वास्तव में आत्मज्ञानी ही व आत्मध्यानी ही ऐसे सुख के अधिकारी हैं। जो शरीर के दास हैं वे ही संसार के दास हैं, वे ही अनंतकाल भ्रमण करने वाले हैं। इसलिए ज्ञानी जीवको इस क्षणिक शरीर