________________
१२.]
तस्वभावना
करता है वह मानव उस क्रोधरूपी पिशाच के वश होकर बावला बन जाता है । यह उन्मत्त पुरुषके समान है जिसने गाड़ नशा पी लिया हो। बावलेको चेष्टाका बुरा मानना मूर्खता है। तिस पर भी उस क्रोधी मानवने यदि मेरे इस शरीरको नाश किया तो मेरा क्या बिगड़ा । शरीर तो स्वयं जड़ है, नाशवंत है मेरा और उसका क्या सम्बन्ध ? यह तो मात्र मेरे रहने का घर है घरके जलनेसे व नष्ट होनेसे घर वाला नष्ट नहीं हो सकता। मैं चेतन अमूर्तिक अविनाशी हूँ मेरा सम्बन्ध अपने इस स्वरूपसे ऐसा निश्चल है कि वह कभी छूट नहीं सकता 1 इस मेरे आत्मा को नाश करनेकी किसीकी ताकत नहीं है । जब मेरे आत्माका कोई बिगाड़ या सुधार करही नहीं सकता है तब मैं किस मानव में राग करूं व किस मानवसे द्वेष करूं? यदि मैं राग-द्वेष करता हूँ तो मैं मूर्ख व बावला हूँ। इसलिए न मुझे किसीसे राग करना चाहिए न द्वेष । मुझे पूर्ण समताभाव में हो रमण करके सुखी रहना चाहिए। निश्चयनय से यहां भी साधकको अपने आत्मा को शुद्ध अविनाशी चेतन धातुमय अमूर्तिक अनुभव कर लेना चाहिए। मेरा कोई शत्र है व कोई मेरा मित्र है इस कल्पना को बिलकुल मिटा देना चाहिए।
परमार्थविंशति में श्री पाबंदि मुनि कहते हैंफेनाप्यस्ति न कार्यमाश्रितवता मित्रेण चान्येन वा । प्रेमांगेपि न मेस्ति संप्रति सुखी तिष्ठाम्यहं केवलः।
संयोगेन पवन काष्ठमभवस्संसारचके चिरं। - निविष्णः खल तेन तेन नितरामेकाकिता रोचते ।।४।।