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तस्वभावना
शार्दूलविक्रीडित छन्द संयोगेन विचित्रवुःखकरणे दक्षेण संपादितामात्मीयों सकलत्रपुनसुहवं यो मन्यते संपदम् । नानापायसमृद्धिवर्द्धनपशम लोमानि! लक्ष्मीमेष निराकृतामितगतित्विा निजां तुष्यति ॥४०॥
अन्वयार्थ-(यः)जो कोई {विचित्रदुःखकरणे दाण) नाना प्रकार के दुःख उत्पन्न करने में प्रवीण ऐसे (संयोगेन) शरीर व कर्म के संयोग से (संपदादिताम्) प्राप्त हुई (सकलत्रपुत्रसहृदं) स्त्रो, पुत्र, मित्र आदि सहित (संपदम) सम्पत्तिको (जात्मीयां) अपनी ही (मन्यते) मानने लगता है (मन्ये) मैं समझता हूं कि (एष:) यह (निराकृतामितगतिः) विशेष ज्ञान रहित या मिथ्या ज्ञानी (नानापायसमृद्धिवद्ध नपरी) प्राणी तरह-तरह की आपत्तियों को बढ़ाने वाली (ऋणोपाजितां) कर्ज से प्राप्त होने वाली (लक्ष्मीम्) लक्ष्मीको (निजाँ) अपनी लक्ष्मी (ज्ञात्वा) जानकर (तुष्यति) सुखी हो रहा है।
भावार्थ-यहाँ आचार्य ने बताया है वह मानव महा मूर्ख है जो कर्म संयोग से प्राप्त पदार्थों को अपना मान लेता है। इस जीवके साथ कोका संयोग नाना प्रकार दुःखोंको उत्पन्न कराने वाला है, कर्मों के उदय से ही रोग, शोक, वियोग होता है। कोंके उदयसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ का विकार होता है। कर्मोके निमित्त से शरीर की प्राप्ति होती है, शरीर में इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियोंसे इच्छापूर्वक विषय ग्रहण करता है । विषयों को पाकर राग करता है उनके चले जाने पर शोक करता है। पुण्यके उदयसे जब इसको मनोज्ञ स्त्री, सुन्दर पुत्र व साताकारी मित्र प्राप्त होते हैं तब उनमें राग करता है, जब यह नहीं रहते
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