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तत्त्वभावना
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इनको अपनी मानता नर कुधी मोही महा पातको।।
सो ऋणसे धन पाय मग्न रहता नहि लाज है बासको ।४० . उत्थानिका--आगे कहते हैं कि ज्ञानी जीव किसी पदार्थ से रागद्वेष नहीं करते हैं
यत्पश्यामि कलेवरं बहुविधव्यापारजल्पोजतम् । तन्मे किंचिवचेतनं नकुरुते मित्रस्य वा विद्विवः ।। आत्मा यः सुखयुःखफर्मजनको नासौ मया पश्यते । कस्याहं बत सर्वसंगविकलस्तुष्यामि एष्यामि ॥४१॥
अन्बया- (पित्रस्य) मित्र के (धा नितिषः वा शत्र के (यत) जिसके (कलेवर) शरीरको (बहुविधव्यापारजल्पोचतम) नाना प्रकार आरंभ करने में व बात करने में लगा हुआ(पश्यामि) देखता हूँ(तत्) वह शरीर (अचेतन) चेतनता रहित जड़ है (मे) मेरा (किंचित्) कुछ (न कुरुते)नहीं कर सकता है (यः आत्मा) उनका जो मात्मा (सुखदुःखजनकः) सुख तथा दुःखका स्वरूप कर्मोको उत्पन्न करनेवाला है (असो)वह(मया)मेरेसे (च दृश्यते) देखा नहीं जाता है तथा (अह)मैं (सर्वसंगविकल:)सर्व कर्मादि पर वस्तु के संग से रहित शुद्ध हूं तब (कस्य)किसपर (तुण्यामि) प्रसन्न होऊँ (रुष्यामि च) तथा शेष करू (बत) यह विचारने की बात है।
मावार्थ-यहां पर आचार्य ने रागद्वेष मिटाने की एक रीति समझाई है । यह ससारी प्राणी उन मित्रोंसे प्रेम करता है जो अपने वचनों से हमारे हितकी बातें करते हैं व अपने आचरणसे हमारी तरफ अपना हित दिखलाते हैं तथा उनको शत्र समझ