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तत्त्वभावना
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विरतये) दूसरोंसे कहे हुए शब्दों को सुननेसे विरक्त होने के लिए ( कर्णयुग्म ) अपने दोनों कान ( विधत्ते) ढक लेता है ( तस्य) उसके ( कर्णमध्येऽपि ) कानों के मध्य ही ( छन्नः ) गुप्त (घोषः) शब्दों का उच्चारण ( नियतः ) सदा (भवति) होता रहता है ।
भावार्थं - यहाँ आचार्य कहते हैं कि विषयसुखका व आत्मसुखका विरोध है, जिसको इन्द्रियोंके विषयोंके भोगों की लालसा है का लक्ष्य नही रहेगा, उसको कभी भो आत्मसुखका लाभ नहीं हो सकता है तथा जिसको आत्मसुखका स्वाद आ जाता है। वही विषयोंके स्वादको विधके समान जानता है। जिसकी वृत्ति विषयसुखमें विरक्त हो जाती है वही आत्मीक सुखको पालेता है, विषयों का सुख सुखसा दिखता है यह अंत में दुःखों का कारण है । जब कि आत्मसुख स्वाधीन तथा बाहरी पदार्थों के आधीन हैं। जब कि है और उपमा रहित है जिसकी मिसाल नहीं दी जा सकती है। इसपर आचार्य दृष्टान्त देते हैं कि जो जगतके लोगोंके शब्दों को सुनता रहेगा वह अंतरंगके छिपे हुए घोषको नहीं सुन सकता है परन्तु जो अपने दोनों कानोंको ढक लेवे ताकि बाहरी शब्द न सुनाई पड़े उसको अपने कानके भीतर छिपा हुआ शब्द सदा ही सुन पड़ता है। कहनेका प्रयोजन यह है कि जो बाहर से विरक्त होता है वही भीतरकी संपदाको पाता है इसलिए हमें संसारिक सुखसे विराग भजकर निजात्मिक सुखमें रुचि बढ़ाकर उसी के लिए आत्मा में ध्यान लगाना चाहिए और सामायिक के द्वारा समताभाव को बढ़ाना चाहिए। जिस किसीने अमृत फल का मीठे फल स्वादिष्ट मालूम तुच्छ स्वाद नहीं पाया है उसी को
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