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जिन जाना निज आत्मतत्वनिर्मल निजमें भये तत्परं । जैसे दूध अलग अलग जल सदा तिम देह आतमपरं ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि आत्मज्ञानी ही मोक्ष जा सकते हैं
तत्त्वभावना
विगलितविषयः स्वं प्रस्थितं चुध्यते यः । पथिकमिव शरीरे नित्यमात्मानमात्मा ॥ विषमभवपयोधि लीलया संघयित्वा । पशुपदमिव सद्यो यात्यसौ मोक्षलक्ष्मीम् ॥३८॥
अन्यथार्थ - (यः) जो ( विगलितविषय:) इंद्रियों के विषयोंकी इच्छाओं का दमन करनेवाला (आत्मा) आत्मा (शरीरे शरीर में (पथिक व ) यात्री के समान (प्रस्थित) प्रस्थान करते हुए (स्वं आत्मानं ) अपने आत्माको ( नित्यम्) अविनाशी ( बुध्यते ) समझता है (असी) वही ( विषमभवपयोधि ) इस भयानक संसाररूपी समुद्रको (पशुपदं इब ) गायके खुरके समान (लोलया ) लीला मात्र में (लंघमित्रा ) पाय करके ( सद्यः ) शीघ्रही (मोक्षलक्ष्मीम् ) मोक्षरूपी लक्ष्मीको (याति) प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ - यहाँ पर भी आचार्यने आत्मज्ञानी को ही मोक्षका अधिकारी बताया है। पहले तो पदार्थों में किंचित् भी राग नहीं रखता है, वही आत्मा आत्मध्यान के प्रतापसे बढ़ा चला जाता है उसके लिए यह संसार समुद्र जो महा भयानक व विशाल है वह गायके खुरके समान हो जाता है वह उसको बहुत शीघ्र पार कर लेता है और मुक्तिद्वीपमें जाकर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है ।
श्री पद्मनंद मुनि सद्बोधचन्द्रोदय में कहते हैं