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१.८]
तत्त्वभावना कृत: संस्तरः) न योग्य तृण काठ पाषाण व भूमितलका बनाया हुआ संथरा है किन्तु (तस्य) उस आत्मध्यान का (कर्ता) करने वाला (अयम्) यह (अमलः) निर्मल व (आत्मतत्वस्थिरः) आत्मतत्व में स्थिर (आत्मा एव)आत्मा ही है। जो (जलदुग्धयोः इब) जल और दूध के समान (देहात्मनो भिदा) शरीर और आत्मा के भेदको (सर्वदा) सदा (जानानः) जानने वाला है (विबुध्यत) ऐसा समझो।
भावार्थ-यहां आचार्य बतलाते हैं कि भेद विज्ञानसे ही आत्मध्यान को सिद्धि होती है। जो आत्मा ऐसा भले प्रकार समझ गया है कि जैसे दूध और पानीका सम्बंध है ऐसेही आत्मा और कार्मण तंजस त्र औदारिकादि शरीरोंका सम्बन्ध हैं जिसेदूध से पानी अलग है वैसे आत्मासे पुद्गलमयी शरीरादि अलग हैं। जो परको पर, जानकर पर से ममत्व छोड़ देता है और निर्मल आत्माके शुद्ध चैतन्यमई सिद्ध भगवानके समान जानकर उसी आत्मीक तत्वमें अपने उपयोगको स्थिर कर देता है वह आत्मा आत्मध्यान करके आत्माको सिद्धिकर सकता है। जिस किसीके ऐसा आताध्यान तो हो नहीं और वह मुनियों के संघमें घूमा करे या आचार्यों की पाद पूजा व भक्ति किया करे व संसारी जीवोंमें अपनी विद्याका चमत्कार दिखाकर प्रतिष्ठाको पाया करे व कभी तिनके का कभी काप्ठ का कभी पाषाणका व कभी भूमितल का ही आसन बिछाकर निश्चल बैठा करे तो ये सब कार्य उसके आत्मध्यानके साधक नहीं है। इसलिए जो स्वहित करना चाहते हैं उनको उचित है कि इन सब कारणोंको मात्र बाहरी निमित्त कारण जाने, इनके सहारेसे जो सामायिकका अभ्यास करते हुए आस्मध्यानमें लयता प्राप्त करते हैं वे ही सच्चे समाधि भावको