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तत्त्वभावना
रसोई बनाना-बनवाना, ब्याह शादीके व जीवनमरणके विकल्पों में पड़ना ग्रहस्थोंके रोग, शोक आदि कष्ट मिटानेको यंत्र मंत्रादि करना आदि कार्यों को आत्मोन्नति में विघ्न कारक व मनको आकूलित रखने के कारण छोड़ दिये हों। तथा आरंभ के कारणभूत जो दश प्रकारके बाहरी परिग्रह हैं उनका भो जिसने त्याग किया हो । अर्थात जिसके स्वामित्वमें न खेतहों, न मकान हो, न चाँदो हो न सोना हो, न गोवंश हो न अन्नादि हो, न दासी हो न दास हो, न कपड़े हों न बर्तन हो तथा जिसने मोह जनित सर्व परिणतियों से भी ममता छोड़ दी हो अर्थात १४ प्रकार का अंतरग परिग्रह भी न रखता हो। अर्थात जिसने मिथ्याल, क्रोध गाना लोग, शग, री, रसि, शोकभय जुगुप्सा, स्त्रीवेद पुंवेद, नपुंसकवेद इन १४ बातों से ममता हटा ली हो। तथा जिसने अपना मन अपने अधीन किया हो, जिसका मन चंचल न हो ऐसा वश में हो कि जब साधु चाहें तब उसे ध्यान व स्वाध्याय में लगाया जा सके तथा मन में यह वैराग्य हो कि संसार असार है मोक्ष ही सार है। इंद्रियों के भोग क्षण भंगुर व अतुप्तिकारक है व आत्मा सुख ही सच्चा भोग है, शरीर नाशवंत व मलीन है, आत्मा अविनाशी व पवित्र है। ऐसे ही साधु जब स्वात्मानुभव का अभ्यास करते २ शुक्न ध्यान पर पहुंचते हैं तब कर्मों का संहार कर मुक्त हो जाते हैं । श्री पद्मनंदि मुनि यत्याचार धर्म में कहते हैं
आचारो दशधर्मसंयमतपो मूलोसराख्या गुणाः । मिथ्यामो हमदोन्झनं शमवमध्यानाप्रमादस्थितिः ।। वैराग्यं समयोपबृंहणगुणा रत्नत्रयं निर्मल। पर्यन्ते च समाधिरक्षयपवानंदाय धर्मों यतेः ॥३८॥