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तत्त्वभावना
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द रखते समभावं सज्जनों दुर्जनों में । कंचन कंकड़ में, राजग्रह वा वनों में । सुख दुख पशु नरमें, संगमें वा विरहमें । युवति सम स्यसिद्धी होत वश वीरमरमें ॥३५
उत्थानिका--आगे कहते हैं कि वीतरागी साधु ही मोक्ष के अधिकारी होते हैं
शार्दूलविक्रीडित छन्द अभ्यस्ताक्षकषायवरिविजया विध्वस्तलोकक्रियाः। बाह्याभ्यंतरसंगमांशधिमुखाः कृतात्मवश्यं मनः ॥ ये श्रेष्ठं भवभोगदेहविषयं बराग्यमध्यासते।। ते गच्छन्ति शिषालयं विकलिला बुद्धया समाधि धाः।३६
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अन्वयार्थ-(ये) जो(अभ्यस्ताक्षकषायवैरिविजयाः)इन्द्रिय विषय और कषाय वैरियों के जीतने का अभ्यास करने वाले हैं, (विध्वस्तलोकक्रियाः) जिन्होंने लौकिक क्रियाकांड आरंभादिक सब त्याग दिया है (बाह्याभ्यन्तरसंगमांगविमुखाः) जो बाहरी और भीतरी परिग्रहके अंश मात्र से भी वैरागी है और जो(मना आत्मवश्यं कृत्वा)मनको अपने आधीन करके (भवभोगदेहविषयं संसार, भोग व शरीर सम्बन्धी(श्रेष्ठ)उत्तम (वैराग्यं वैराग्यको (अध्यासते) प्राप्त हुए हैं (ते बुधाः) वे ज्ञानी साधु (समाधि) समाधि या आत्मीक तन्मयता को बुद्धवा)अनुभव करके (षिक
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