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तत्वभावना
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तन पदार्थों का सम्बन्ध हो तो द्वेष नहीं करते। ऐसे साधु महात्मा जो जगत को एक मात्र कर्मों का नाटक समझते हैं, जिनकी दृष्टि निश्चयनय रूप रहती है, जो जगतके नानाप्रकार जीवके भषों में व अवस्थाविशेषों में भी शुद्ध द्रव्य को उसके अपने असली स्वरूप में देखते हैं, उनके सामने कोई छोटा या बड़ा जीव है ही नहीं। सब ही जीव शुद्ध सिद्ध समान दिख रहे हैं। वहां राग और द्वेष किसके साथ हो । जितने अजीब पदार्थ हैं वे अलग दिखते हैं उनसे कोई रागद्वेष का सम्बन्ध नहीं । इस तरह शुद्ध निश्चय नय के आलम्बन से जो साधु ब ज्ञानो महात्मा निरन्तर विचारते रहते हैं उनका संसाररूपो स्त्रीसे राग घटता जाता है
और मुक्तिरूपी परम मनोहर अनुपम स्त्री से राग बढ़ता जाता है वह मक्तिरूपी स्त्री जब जान लेती है कि मेरा उपासक बड़ा धोर वीर है, उपसर्गोके पड़ने पर भी आत्मध्यानसे व मेरी आशक्ति से हटता नहीं है तब ही वह स्वयं आकर इसको अपना लेती है और यह पुरुषार्थी साहसी वीर सदा के लिए मुक्ति धाम में जाकर आनंदामृत वा भोग किया करता है।
श्री पद्मनंद मुनि सबोध चंद्रोदय में कहते हैंकर्मभिन्नमनिशंस्वतोखिलम पश्यतो विशवबोधवक्षषा। सत्कृतेपि परमार्थविनो योगिनो न सुख दुःख कल्पना ।२०।
भावार्थ-जो निश्चयनयके जाननेवाले योगी हैं वे निर्मल ज्ञानदृष्टि से अपने आत्मा से सर्व कर्मों को भिन्न देखते हैं तव उनके भीतर कर्मोंके निमित्त से जो सुख दुःख होता भी है उसमें यह भाव नहीं करते कि मैं सुखी हुआ या मैं दुःखी हुआ । वे निरन्तर समताभाव का अभ्यास करते हैं--