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तत्त्वभावना
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लिला:) सर्व कर्म रहित होकर (शिवालयं) मोक्षधाम को (गच्छन्ति) जाते हैं।
भावार्थ-इस श्लोक जाचार्य ने बता दिया है कि मोक्षका उपाय अभेदरत्नत्रय समाधि या स्वात्मानुभव है या शुक्लध्यान है । अबतक शुक्लध्यानकी अग्नि नहीं जलती है तबतक न मोहका नाश होता है और न घातिया कर्मों का नाश होता है और न यह अधातिया कोसे छूटकर सिद्धपद पा सकता है । उस शुक्लघ्यान की सिद्धि उसी महात्माको हो सकती है जो शरीरके खंड-२ किये जाने पर भी ममता न लावे व वेदना से त्रसित न हो। जिसकी ममता बिलकुल शरीरसे हट गई हो जो सर्दी माँ डांस मच्छरको बाधाएं सह सके । इसलिए ये साधुको वह सबकुछ वस्त्र त्याग देना पड़ता है जो उसने स्वाभाविक शरीरको अवस्थाको ढाने के लिए धारण कर रक्खें थे। यहां पर आचार्यने मुक्ति के योग्य जो पात्र हो सकते हैं उन साधुओंका वर्णन किया है। पहली जरूरी बाततो यह बताई है किउन्होंने इंद्रियोंको इच्छाओंको जीतनेका व क्रोधादि कषायोंके दमनका भलेप्रकार अभ्यास कर लिया हो, क्योंकि ये इंद्रियही प्राणीको कुमागमें डाल देती हैं व कर्मोका बंधकषायों से ही होता है । जिस सम्यग्दृष्टिीने आत्माके वीतराग विज्ञानमय स्वभावका निश्चय कर लिया है वही आत्मीक सुखके मुकाबले में इन्द्रिय सुखको तुच्छ जानता है, इसलिए वही इंद्रियोंका जीतने वाला हो सकता है जिसने अपने आत्मा का स्वभाव वीतराग है ऐसा समझ लिया है, वही कषायोंके जीतनेका पुरुषार्थ करेगा। दूसरी बात साध में यह जरूरी है कि उसने सब लोकव्यवहार छोड़ दिए हों, अनेक प्रकार व्यापारके आरम्भ करके पंसा कमाना मकान मठ बनवाना, खेती कराना,शरीर रक्षार्थ सामान जोड़ना,