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तस्वभावना
जो विवेकी इन प्रश्नों को बिलकुल विचार नहीं करते हैं के आत्मोन्नति से सर्वथा दूर रहते हैं। वे वह कुछ भी आचरण नहीं पालते हैं । जिससे आत्मा को सुख शांति प्राप्त हो । वे रातदिन संसार के मोह में फंसे रहते हैं और विषय कषाय सम्बन्धी को न्याय व अन्याय रू काया को करते हुए अनेक प्रकार के कर्म बांध संसार सागर में गोते लगाते रहते हैं। ऊपर लिखित विवेक जिनमें होता है वास्तव में वे ही मानव हैं। जिनमें यह विचार नहीं है वे पशुतुल्य नितान्त अज्ञानी तथा मूर्ख हैं, मानव जन्म को पाकर जो विषयों में खो देते हैं वे महा अज्ञानी हैं। श्री ज्ञानार्गव में शुभचन्द्र जी कहते हैं
अत्यन्तबुर्लभेष्वेषु वैवाल्लम्धेष्यपि क्वचित् । प्रमावत्प्रच्यवन्तेऽत्र केचित् कामार्थलालसाः ॥ सुप्राप्यं न पुनः पुंसां बोधिवरत्नं भवार्णवे ।
हस्ताद मुष्टं यथा रत्न महामूल्यं महार्णवे ।।१२।। भावार्थ-मानव जन्म, उत्तम कुल, दीर्घ आयु, इन्द्रियों की पूर्णता, बुद्धि को प्रबलता, साताकारो सम्बन्ध ये सब अत्यन्त दुर्लभ हैं । पुण्य योग से इनको पाकर भी जो कोई प्रमाद में फंस जाते हैं व द्रव्य के और कामभोगों के लालसावान हो जाते हैं, वे रत्नत्रयमार्ग से भ्रष्ट रहते हैं । इस संसाररूपी समुद्र में रत्नत्रय का मिलना मानवों को सुगमता से नहीं होता है। यदि कदाचित् अबसर मा जावे तो रत्नत्रय धर्म को प्राप्त करके रक्षित रखना चाहिए । यदि सम्हाल न की तो जैसे महासमुद्र में हाथसे गिरे हुए रत्न का मिलना फिर कठिन है उसी तरह फिर रत्न पयका मिलना दुर्लभ है।