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तत्त्वभावनां
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भावार्थ - यहां आचार्य ने दिखाया है कि इन्द्रियों के भोगों के करने से सुख मिलेगा इस भ्रम बुद्धिमें उलझा हुआ यह मन नाना प्रकारकी कल्पनाएं किया करता है। कभी तो चाहता है कि स्वर्ग में जाकर पंदा हू और वहां बहुत सुन्दर देवियों के साथ कीड़ा करूं, कभी भवनवासी के भवनों का स्वालकर लेता है जो पाताललोक में रहते हैं— उनके समान घूमना व सुखी रहना चाहता है, कभी पृथ्वी में अनेक देश, नगर, ग्राम पर्वत, नदी, बाजार, गली बादि की संर करना चाहता है । अथवा मह् भन ऐसा मूर्ख है कि यह मनसे ही देवियोंको भोग लेता है, मनसे ही पाताल में घूम आता है, मनसे ही सर्व पृथ्वी की संर कर लेता है, तथा यह चाहता है कि मनके अनुकूल लक्ष्मी प्राप्त हो तथा जगतमें मेरा ऐसा यश फैले कि मैं प्रसिद्ध हो जाऊँ। इस प्रकार की कल्पनाओं को करता रहता है। इन कल्पनाओं के कारण अपनी इच्छाओं को बहुत बढ़ा लेता है । तब उनकी पूर्ति के लिए आकुलता करता है, मनको रात-दिन चिन्ता में ही फंस जाना पड़ता है। जिन पदार्थों को चाहता है और वे प्राप्त नहीं हैं, उनके लिए तो मिलानेका उद्यम करते हुए चिंतित रहता है, जो पदार्थ हैं उनके बने रहने की चिंता करता है, जो पदार्थ थे और उनका किसी कारण से वियोग हो गया, उनके फिर मिलने की आशा से चिंता करता है ।
इसपर निरन्तर अशांतिके दाह में जला करता है और वह सुखशांतिका समुद्र जो अपने ही पास है, जो अपने ही आत्माका स्वभाव है उसकी तरफ निगाह उठाकर भी नहीं देखता है । यदि एक दफे भी उस अनुपम आत्मिक सुख का स्वाद ले ले तो फिर इसकी सारी आकुलता मिटाने का साधन इसको मिल