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तत्त्वंभावना
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सताते हैं तब उनका यश भी जाता रहता है और सच्चे आत्मीक सुखकी तो उनको गंध भी नहीं आती है। वे यदि आत्मोक तत्व पर लक्ष्य देते तो इस नरभव में सच्चे सुखको पा सकते थे परन्तु वे अन्धे होकर इस रत्नको जो अपने ही पास है गमा बैठते हैं । उनको रात-दिन भोगों को व पैसे कमाने की चिन्ता सताया करती है। कहीं खर्च अधिक कर डाला व आमद कम हुई तो कर्जदार होकर घोर चिताको दाहमें जलते रहकर शीघ्र प्राणरहित हो जाते हैं । आचार्य कहते हैं कि उनके ऐसा विपरीत कार्य का उदय है कि जिससे वे महादःखी रहते हैं। प्रयोजन कहने का यह है कि ऐसे कष्टमय जीवनको पार करके इस कर्म भूमिके मनुष्य सम्बन्धी भोगोंमें लिप्त होना मुर्खता है । इस शरीरमें जहां भोगोपभोग के लिए इतने कष्ट होते हैं वहां इस तनसे सयंम का पालन हो सकता है जिसकी न पशु न भोग भूमियां और न देव पालन कर सकते हैं। इसलिए बुद्धिमान मानवोंको उचित है कि संतोषपूर्वक व न्यायपूर्वक जीवन बितावे और वैराग्य पाने पर साधु हो जावे और अपने सच्चे सुख को पाते हुए कर्मोंके नाशका उद्यम करे जिससे कभी न कभी मुक्ति के स्वामी होजावे । मनुष्य-जन्मको सफल करना यही बुद्धिमानी है। श्री अमितगति, सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं
जन्मक्षेत्रे पवित्रे क्षणचिचपले दोषसर्वोतरन् । बेहेम्याधादिसिन्धु प्रपतनजलधौ पापपानीयकुंभे ॥ कुर्वाणो बन्धुरि दिविधमलमते यासि रे जोव ! नाशं । संचिन्त्येवं शरोरे कुरु हत ममतो धर्मकर्माणि नित्यम् ।४०५
मावार्थ-इस पवित्र जन्म के क्षेत्र में आकर तू अति चंचल दोषरूपी साँसे भरे हुए रोगादि रूपी समुद्र में गिरनेवाले, पाप