________________
तत्त्वभावना
१०० ]
( उपाय:) उपायों से ( सदा ) नित्य ( पाल्यपान ) पालन किया हुआ (स्वकीय:) अपना ही (देह :) शरीर ( समं ) साथ ( न याति ) नहीं जाता है ( तत्र ) वहां ( कथं ) किस तरह ( बाह्यभूतानि ) बाहर ही बाहर रहने वाली (वित्तानि) धन आदि सम्पत्तियां साथ जा सकती हैं (इति) ऐसा ( प्रबुध्य ) समझकर ( कुत्रापि ) किसी भी पदार्थ में व कहीं भी (माहः ) मोहभाव ( न कृत्यः ) न करना चाहिए ।
भावार्थ - यहां आचार्य फिर भी समझते हैं कि हे भव्य जीव ! तू क्यों परपदार्थ के मोह में पागल हो रहा है। स्त्री, पुत्र मित्र, माता-पिता राजा, प्रजा, नौकर चाकर ये चेतन पदार्थ तथा घर, वस्त्र, वासन आदि अचेतन पदार्थ ये सब मात्र इस शरीर से सम्बन्ध रखते हैं। जब शरीर ही इस जीव से भिन्न है तब ये पदार्थ अपने कैसे हो सकते हैं। जगतके सर्वही पदार्थों की सत्ता मेरी आत्मा की सत्ता से भिन्न है । यह भेद विज्ञान एक ज्ञानीके हृदय में रहना योग्य है । हरएक द्रव्य अपने द्रव्यक्षेत्र काल भाव को अपेक्षा मस्तिरूप है तथा पर पदार्थों के द्रव्यक्षेत्र काल भाव की अपेक्षा नास्ति रूप है। आत्मा में आत्मा का द्रव्य जो अनंत गुणोंका समुदायरूप अखंड पिंड है सो तो उसका अपना द्रव्य है । जितने असंख्यात प्रदेशों के लिए हुए यह मात्मा है वह आत्मा का क्षेत्र है, इस आत्मा की जो अवस्थाविशेष या पर्यायें हैं सो उसका काल है, आत्मा के जो शुद्ध गुण हैं वह इसका भाव है। जबकि आत्मा के सिवाय अन्य सब आत्माओं के व अन्य पदार्थों के कोई द्रव्यक्षेत्र काल भाव इस आत्मा में नहीं है । इसलिए उन सबका इस आत्मा में नास्तित्व या अभाव है । इस तरह स्याद्वाद नय के द्वारा जो अपने आत्मा में एक हो समय में अस्तित्व नास्तित्व को व भावाभाव को समझ लेता है वही मात्र एक अपने स्वभाव को अपना मानता है और सब
+