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तत्त्वभावना
यमालिंगितुं रक्षितुं संति शक्ता । विचित्येति कार्यं निजं कार्यमायैः ॥ ३३ ॥ अन्वयार्थ - ( यमालिगिओ राज जो काम सि किए हुए प्राणीको (न वैद्या: न वैद्य ( न पुत्रा : ) न पुत्र ( न विप्राः ) न ब्राह्मण ( न शकाः) न इन्द्र ( न कान्ता ) न स्त्री (न माता) न माता ( न भृत्याः ) न नौकर ( न भूपाः) न राजागण ( रक्षितुं बचाने के लिए ( शक्ताः संति) समर्थ हैं (इति) ऐसा ( विचित्य ) विचार कर (आय) सज्जन पुरुषों को ( निजं कार्य ) अपना आत्मकल्याण ( कार्य ) करना योग्य है ।
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भावार्थ - यहाँ पर बाचार्य यह संकेत करते हैं कि यह मानव जन्म बहुत अल्पकाल रहने वाला है। निरंतर यहां मरण का भय है, यह नियम नहीं कि कब मरना होगा, और जब यकायक मरण आ जायेगा तब कोई वैद्य हकीम किसी दवा से बचा नहीं सकता, न तब अपने कुटुम्बी जन स्त्री, पुत्र, माता, बहन आदि रोक सकते हैं, न नौकर-चाकर, सिपाही व राजा आदि मरण को भगा सकते हैं। और तो क्या, बड़े-२ इन्द्रादि देव भी मरण से न आपको बचा सकते हैं, न दूसरों को बचा सकते है न किसो और पूज्यनीय देव में शक्ति है कि किसीको मरणसे रोक सकें । जब ऐसा नाजुक मामला है तब साधु व सज्जन पुरुषों को अपना जीवन बहुत अमूल्य समझकर इसका सदुपयोग करना चाहिए । आत्मोप्रति करना ही इस नरजन्म का कर्तव्य है । इसलिए इस कार्य में ढील न करनी चाहिए। ढोल करने से ही पीछे पछताना पड़ेगा जो बुद्धिमान इस नरजन्म को संसार के मोह में फंसकर खो देते हैं उनको पीछे बहुत पछताना पड़ता है। नरजन्म की सफलता करना ही बुद्धिमानी है । सुभाषित रत्नसंदोह में श्रो अभिगति पहाराज न हते हैं