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तत्त्वभावना
चित्रयाघातवृक्षे विषयसुखतणास्वावनासक्तचित्ताः । निस्विशरारमन्तो जनहरिणगणाः सर्वतः संचरद्धिः॥ खाद्यते यत्र सद्यो भवमरणजराश्वापदे मरूपः । तनावस्पांक्य कुर्मो भवगहनवने युःखावाग्नितप्ते ॥३२॥
अन्वयार्य-(चित्रव्याघातवृक्षे) नानाप्रकारकी आपत्तिरूपी वृक्षोंसे भरे हुए (दुःखदावाग्नितप्ते) दुःखरूपी दावानलसे तप्तायमान (भवगहनवने) इस संसार रूपी भयानक जगल में (आरमन्तः) घूमने वाले (विषयसुखतृष्णास्वादनासक्तचिताः) विषयोंके सुखरूपी तुष्णाके स्वाद में चित्त को लगानेवाले (जनहरिणगणाः) प्राणरूपी हिरणों के समूह (यत्र) जहां (सर्वतः) सर्व तरफ (निस्त्रिशः)निर्दयी (संचरद्भिः) घूमनेवाले (भीमरूपैः भवमरणजराश्वापदैः) भयानक जन्म जरा मरणरूपी हिंसक जीवों के द्वारा (सद्य) निरंतर (स्वायते) भक्षण किए जाते हैं, (तत्र) वहाँ (क्व अवस्था कुर्मः) हम फिस जगह रहें ।
भावार्थ-जैसे कोई ऐसा सघन जंगल हो जहाँ बड़े टेढ़े-२ वृक्षों के समूहहों व दादाग्नि लगी हुई हो और चारों तरफ सिंह व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी घूमते हो और जहां तिनके को चरने वाले हिरण निरंतर हिंसक प्राणियों के द्वारा खाये जाते हों ऐसे वन में कोई रहना चाहे तो कैसे रह सकता है ? जो रहे वही आपसियोंमें फैसे, इसी तरह यह संसार भयानक है जहां करोड़ों आपत्तियाँ भरी हुई हैं तथा जहाँ निरंतर दुखोंकी आग जला करती हैं व जहां प्राणी तित्य जन्मते हैं, बूढ़े होते हैं तथा मर जाते हैं, ये प्राणी इद्रिन्योंके विषयों के सुख में मग्न हो जाते हैं,