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तत्वभावना। नहीं | यदि मिल भी जाते हैं तो उनके भोगोंसे तृप्ति होती नहीं और अधिक भोगनेकी चाइ बढ़ जाती है। तू आज्ञानी होरहा है, ऐसा समझता है कि इंद्रियों के भोग ही सरल है । तुने कभी अपना ध्यान मिनेन्द्र भगवानकी अमृतमई वाणीके सुननेकी तरफ नहीं। दिया । यह भगवानकी वाणी हमको सच्चा मार्ग बताती है । यह । हमारा यह भ्रम मिटाती ई कि संसारके विषयभोगोंमें मुख है। यह आत्माके भीतर भरे हुए मुखसमुद्रका दर्शन कराती है और उसीमें गोता लगानेकी व उसीके शांत जलको पीनेकी प्रेरणा करती। है। जिन्होंने अनेकांतमयी श्री मिनवाणीको समझा है चे सम्यग्दृष्टी होकर सदा सखी होजाते हैं। मेदज्ञानकी वह दवा ज्ञानियोको मिक जाती है जिसके प्रतापसे इनकी आत्माको उन्नति करनेका मार्ग मिलता है । इसलिये कहते हैं कि-हे मन ! तू पावलापना । छोड़ और एकाग्र होकर जिनवाणीका अभ्यास कर । यह सूर्यके । समान पदार्थोंको यथार्थ दिखानेवाली है और सर्व दुःखोंसे छुड़ाने । वाली है। यह संसारके रोगको शमन करके आत्माको स्वाधीन बनानेवाली है। श्रीपद्मनंदि मुनि सरस्वतीको स्तुतिमें कहते हैंविधायमानः प्रथम त्वदाश्रयम् ।
श्रयन्ति तन्माक्षपदं महर्षयः ॥ प्रदीपमाश्रित्य मई तमस्तते ।।
यप्सितुं वस्तु लभेत मानवः ॥ भावार्थ-महान् मुनिजन पहले तेरा ही आश्रय लेते हैं फिर मोक्षपदमें जाते हैं जैसे अन्धेरे घरमें दीपकके सहारेसे ही मानः । वको इच्छित वस्तु मिल सकती है। वास्तवमें परम परमाणकार जिनवाणीका अभ्यास ही परमोपकारी है ।
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