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तत्त्वभावना
मोह नहीं छोड़ता है जहां शांत स्वरूपी जलका नाम तक नहीं है, जहां भयानक इंद्रियोंकी चाह को दाह सदा सताती है ब जहाँ कामदेवरूपी शिकारी सदा बाण मारके तेरा नाश करता है तथा जहां बड़े-२ वृक्ष तो हैं परंतु वे सर्व दुःखदाई है-रोगरूपी कांटों से भरे हुए व मानसिक कष्टरूपी कटीले पत्तोंसे छाए हुए हैं, जो इस मनरूपी हिरणके महान शत्रुओंसे ध्याप्त है। जो बन महा भयानक है जहां तू अपनी प्यास बुझानेको इंद्रियरूपी भीलोंकी पल्लियों में जाता है परन्तु वहांसे शांतरस को न पाकर उल्टा और अधिक प्यासा हो जाता है। इससे यह उचित है कि तू इस संसाररूपी वनका मोह छोड़ और इस वनके बाहर जो आत्मारूपी उपवन आत्मानंदरूपी जलसे भरे हुए स्वात्मानुभव रूपी सरोवर सहित है उनकी तरफ जा । तब ही तुझे सुख मिलेगा। वास्तव में यह मन बड़ा चंचल है। सामायिक की प्राप्ति तब ही हो सकती है जब मन संसारसे उदास होकर आत्मीक सुख का अभिलाषी होवे । श्रीअमितगति आचार्य सुभाषितरत्न संदोह में चित्त को इस तरह समझाते हैं--
त्यजत युवतिसौख्यं शांतिसौख्यं श्रयध्वं । विरमत भवमार्गान्मुक्तिमार्गे रमवम् ॥ जहत विषयसंग ज्ञानसंग कुरुवं ।
अमितगति निवासं येन नित्यं लभध्वं ॥१९॥ भावार्थ-तू स्त्रियों के सुखको छोड़ शांतमई सुखका आश्रय लै, संसारके मागसे विरक्त हो व मोक्षमार्गमें रमण कर, इंद्रियों के विषयों के संग को छोड़ तथा ज्ञान की संगति कर जिससे अविनाशी मोक्षधाम का निवास प्राप्त हो जावे ।