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तत्त्वभावना
जावे । आचार्य ने इस मनकी मूर्खता को इसीलिए जताया है कि हमें मनके कहने में न चलकर सुख शांतिका उपाय अवश्य करना चाहिए । इंद्रियों के पोछे पढ़ना बाकुलता को बढ़ाने ही बाला है। सुभाषितरत्न संदोहमें श्री अमितगति महाराज कहते
सोल्यं यदन विजितेन्द्रियशत्रु वर्षः । प्राप्नोति पापरहितं विगतांतरायम् ।। स्वस्थं तदात्मकमनात्माधिया विलभ्यं ।
किं तदुरन्तविषयानलतप्तचित्तः ।।६४|| मावार्थ-जो इन्द्रियरुपी मानों के नामोतिलाई वह इस जगत में जैसा पापरहित व विघ्नरहित, निराकुल व मात्मीक सुख पा लेता है जिसको वह मानव नहीं पा सकता जो अज्ञानी है व आत्माको नहीं पहचानता है । वैसे सुख को क्या महान इंद्रियोंकी इच्छारूपी आगमें जलता हुआ है मन जिसका ऐसा प्राणी कभी पा सकता है ? अर्थात् कभी नहीं पा सकता है, इसलिए शांतिके प्राप्त करनेका ही यत्न करना बुद्धिमानी है।
मूल श्लोकानुसार मालिनि छन्द रे मन तू भोगे देवपत्ती कमी तो। जावे पातालं देखता भूमितल को। निर्मल कोतिको प्रचुर धन नित्य चाहे।
पर शम सुख सागर में कभी नाब गाहे ॥२८॥ उत्थानिका-मागे कहते हैं कि यह मन कभी जिनवाणी का सेवन नहीं करता है
मोक्तुं भोगिनितंबिनीसुखमरिचतां पनीपत्स्यसे । प्राप्तुं राज्यमनन्यलम्यविभवं क्षोणी चतोकस्यसे ।।