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तत्वभावना
षको (ननु कथं श्वेदः) क्यों शोक करना चाहिए ? इस जगत में (इति) ऐसा(ज्ञात्वा)जानकर(अनुदिनं प्रतिदिन (विश्लेषशोकव्यथा)बाहरी वस्तुओंके वियोगके शोकके कष्टको (विमुच्यताम्) छोड़ देना ही उचित है।
भावार्थ-यहां पर आचार्य ने स्त्री पुत्रादिके मोहके नाशका व उनके शोकके नाशका उपाय बताया है कि बुद्धिमान प्राणीको यह विचारना उचित है कि यह पारीर जिसका इस अशुन संसारी जीवके साथ अनादिकालका सम्बन्ध है वह भी एक भवमें जन्मसे लेकर मरण पर्यन्त रहता है, यद्यपि यह फिर कर्मों के उदयसे प्राप्तहो जाता है तो भी फिर मरण होनेपर छूट जाता है। हम जो चाहें कि इस शरीरका सम्बन्ध न हो तो हमारे मन की बात नहीं है । कर्मोके उदयसे बारबार इनका सम्बन्ध होता ही रहता है और छूटता ही रहता है । जब कर्मों का बंध बिलकुल नहीं रहता है सब तो सदा के लिए शरीरका सम्बन्ध छूट जाता है। कहने का मतलब यह है कि वह शरीर जिसके साय यह जीव परस्पर दूध पानोकी तरह मिला हुआ है, एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध किए है, वे भी जब छूट जाते हैं तब स्त्री, पुत्र, मित्रादि व घर धन राज्य आदि जो बिलकुल बाहरी पदार्थ हैं उनका सम्बन्ध क्यों नहीं छूटेगा ? जो वस्तु अपनी नहीं है उसके चले जाने का क्या खेद ? इसलिए बद्धिमानों को कभीभी अपने किसी माता-पिता, भाई-बन्ध, पुत्र व मित्र के वियोग पर या धन के चले जाने पर शोक नहीं करना चाहिए । इनका सम्बन्ध जो कुछ है भी बह शरीर के साथ है जब यह शरीर हो छुटेगा तब इनके छूटने का क्या विचार ? इसलिए पर पदार्थोंके संयोग में हर्ष व वियोग में शोक न करना ही बुद्धिमानी है।