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तत्यभावना
अन्वयार्थ-(मे माता) यह मेरो माता है (मम गैहिनो)यह मेरी स्त्री है (मम गृह) यह मेरा घर है (मे बांधवाः) ये मेरे बंधुजन हैं (मे अंगजाः) ये मेरे पुत्र हैं (मे तातः) यह मेरे पिता हैं (मम संपदः) यह मेरा धन है (मम सुखं) यह मेरा है (मे सज्जनाः) ये मेरे हितैषीजन हैं (मे जनाः) ये मेरे परिवार के लोग हैं (इत्थं) इस तरह के (घोरममत्वतामसव शव्यस्तावबोधस्थितिः) भयानक ममतारूप अंधकार से जिसका ज्ञान अस्त हो रहा है ऐसा (प्राणी) प्राणी (शर्माधान विधानतः) सच्चे सुखको प्राप्त कराने वाले (स्वहिततः) अपने हितकारी कार्य से (सनीस्त्रस्यते) दूर भागता जाता है।
भावार्थ-यहां पर आचार्य ने बाहरी पदार्थों से ममता करने का कटक फल दिखलाया है। जैसे मदिराके पीने से बुद्धि बिगड़ जाती है, बेहोशी आ जाती है। अपनी सुधि नहीं रहती है उसी तरह मोह के कारण यह प्राणो अपनी आत्मा के हित को भूल जाता है । यह जब कभी जरा विचार करता है तो समझ लेता है कि जब शरीर ही अपना नहीं है तब शरीर के साथी माता, पिता, स्त्री, बंध, पुत्र, मित्र, परिवार, घन, गह आदि चेतन व अचेतन पदार्थ अपने कैसे होंगे ? परन्तु कुछ ही देर पीछे फिर ऐसा मोहित हो जाता है कि रात दिन इसी खयाल में फंसा रहता है कि ये मेरे पुत्र हैं, यह स्त्री है, यह धन है, ये बंधुजन हैं, इनको मैं पालने वाला है, उन सबको मेरी आशा माननी चाहिए अथवा ये सब बने रहें और मेरा काम चलता रहे । ये सब मेरे इंद्रिय सुखके भोगमें सहकारी हैं, यह धन सदा बना रहे, इसी से मेरा जीवन सफल है। प्रातःकाल से संध्या होती है, संध्या