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तत्त्वभावना
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परिग्रहयतां शिवं यदि तदानलः शीतलो। सीनियसुखं तविह कालकूटः सुधा ।। स्थिरो यदि तनुस्तदा स्थिरतर तडिच्चाम्बर ।
भनेता रमणीयता यदि तइन्द्रजालेऽपि च ॥६॥ भावार्थ-यदि परिग्रह धारी साधुओं को मोक्ष होता हुआ माना जावे तो अग्नि को ठंडा मानना पड़ेगा । इन्द्रियों का सुख हो जावे तो विष को भी अमृत मानना होगा। शरीर यदि स्थिर माना जावे तो आकाश में बिजली को स्थिर मानना होगा, और यदि संसार में रमणीकता मानी जादे मो इन्द्रजाल के खेल में रमणीकता मानना होगा।
मतलब यह है कि परिग्रह त्यागी, इन्द्रियसुख से विरागी, शरीर को अनित्य मानने वाला संसार को रमणीक न देखने वाला ही साधु महात्मा मोक्ष का अधिकारी है।
मूल श्लोकानुसार त्रिभंगी छन्द जिनका बन डेरा चंद्र उजेरा दीपक मेरा तम नाशे भिक्षा है भोजन अंबर विश गण 5 शयनास नपरका ॥ जो संतोषामृत पीवत सुखकृत कर्मन घोषत सुखभासे। सो यति शिव पावे विपत नशावे दोन न पावे लघुता से ॥२४
उत्पानिका—आगे कहते हैं कि जो पर पदाथों पर स्नेह करते हैं वे आत्महित से गिर जाते हैं
माता मे मम गेहनी मम गहं मे बांधवा मेंऽगजाः। तातो मे मम संपदो मम सुखं मे सज्जना में अनाः॥ इत्थं घोरममत्वतामसवशम्पस्तावबोधस्थितः। शर्माधान विधानतः स्वहिततः प्राथी समीस्त्रस्यते ॥२५॥