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तत्वभावना
नाशी निजपदको पासक, जहां कोई कर्मका सम्बन्ध नहीं रहता है और यह आत्मा स्वयं परमात्मा हो जाता है। वास्तव में सम्यग्दष्टि व ज्ञानी जीव को वीतराग भाव की ही प्राप्ति का यत्त करना चाहिए । यह वीतरागता उसी समय प्राप्त होती है जब विषय कषायों से ग्लानि हो जावे और शद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा से प्रीति बढ़ जावे। क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही परम वीतरागमय है इसलिए आत्मा के ध्यान से स्ययं वीतरागता झलक जाती है और तब सुखशांतिकी प्राप्ति होती है, पिछला कर्म कटता है। असल में आत्मा की भूमिमें चलना ही जीव का परम हित है।
श्री पद्मनंदी मुनि निश्चयपंचाशत् में कहते हैंस्वपरविभागावगमे जायते सम्यक परे परित्यक्ते । सहजकबोधरूपे तिष्ठत्यात्मा स्वयं सिद्धः ।।४२॥
भावार्थ- जब आपा परका भेदरूप ज्ञान भले प्रकार पैदा हो जाता है तब पर से मोह छोड़ने पर यह स्वयं सिद्ध आत्मा स्वाभाविक एक ज्ञान स्वरूप में ठहर जाता है।
मल श्लोकानुसार मालिनी छन्द कथन किया जो मैं शब्द पद अर्थहीनं । विषय विमोही हो क्रोध मानायधीनं । जिनमुखसे प्रगटो वाणिदेवी क्षमाकर ।
वर निर्मलज्ञानं देय शिवपद कृपाकर ॥१४॥ उत्थानिका--आगे साधक विचारता है कि मेरी बुद्धि ज्ञान होने पर भी विषयों से क्यों विरक्त नहीं होती है
निःसारा मयदायिनोऽसुखकरा भोगाः सदा मश्वराः । निवस्थाममवातिभावजनकाः विद्याविदा निविता ॥ .